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________________ * ८२ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * अघातिकर्म भी जली हुई मूंज की रस्सी की तरह उनकी आत्मा को या आत्म-गुणों को कोई क्षति नहीं पहुंचा सकते। अतएव सर्वज्ञ-सर्वदर्शी कृतकृत्य तीर्थंकर भगवान द्वारा अब जनता को प्रबोध देने, न देने तथा ज्ञान का प्रकाश देने, न देने से उनको व्यक्तिगत कुछ भी हानि-लाभ नहीं है। जैसे सूर्य जगत् को प्रकाश देता है। उसके मन में कोई विकल्प नहीं है कि मैं अमुक के घर में प्रकाश दूं, अमुक के घर में नहीं। जो अपने घर का द्वार खुला रखता है या प्रकाश ग्रहण करता है, उसको लाभ है; नहीं ग्रहण करता, उसकी खुद की हानि है। परन्तु सूर्य के द्वारा किसी को प्रकाश देने या न देने से उसको स्वयं को कोई लाभ या' हानि नहीं है। वह सहजभाव से समय पर उदित होता है। इसी प्रकार केवलज्ञान सूर्यरूप तीर्थंकर भगवान जगत् को सहजभाव से ज्ञान का प्रकाश देते हैं। उनके मन में कोई विकल्प नहीं है कि मैं अमुक को ज्ञान का प्रकाश दूँ, अमुक को न दूँ। और न ही उनको अपने पूर्ण ज्ञान का अहंकार है, न ही दूसरे ज्ञानी से ईर्ष्या है, न ही ज्ञान का प्रकाश देकर भीड़ जुटाने की अपने संघ या धर्म के अनुयायी बढ़ाने की या पूजा-प्रतिष्ठा या मान-सम्मान पाने की तमन्ना है। पूर्व-जन्म में उन्होंने जनता को प्रबोध देने, शासन की प्रभावना करने की, परोपकार की भावना से, लोकोपकार की तथा मन-वचन-काया से दूसरों का हित करने की प्रवृत्ति से जो उत्कृष्ट पुण्यबंध किया था, उस पुण्यबंध के संस्कार तीर्थंकर-भव में चार अघातिकर्मों में से शुभ नामकर्म के रूप में उदय में आने के कारण सहजभाव से उनके द्वारा परोपकार की, जन-हित की, लोक-कल्याण की, सद्धर्म-बोध की, सद्धर्म-प्रचार की उनकी प्रत्येक प्रवृत्ति होती है। 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की, 'सर्वभूतात्मभूतभाव' की उदात्त सुदृष्टि ही उनकी सर्वज्ञता की व्यावहारिक पृष्ठभूमि है। इसीलिए अनन्त करुणासागर, विश्ववत्सल, जगत्-पितामह, खेदज्ञ या क्षेत्रज्ञ आदि विशेषणों से उनके अनुगामी भक्तों ने उन्हें सम्बोधित किया है।' सर्वज्ञता की सार्थकता का व्यावहारिक फलितार्थ ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु' की उदात्त दृष्टि का सक्रिय हो जाना ही सर्वज्ञता का सरल और व्यावहारिक फलितार्थ है। पूर्वकृत पुण्य-प्रकर्ष के फलस्वरूप उनकी दृष्टि सहज ही ऐसी बन जाती है कि वे विश्व की समस्त आत्माओं की अनुभूति को, सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, प्रमोद-पीड़ा आदि की भावनाओं को अपनी भावना में १. (क) 'चिन्तन की मनोभूमि' से भाव ग्रहण, पृ. ४४ (ख) सव्वभूयप्पभूयस्स समं भूयाई पासओ। पिहियासवस्स दंतस्स पावकम्मं न बंधइ॥ -दशवै., अ.४ ., (ग) जगवच्छलो, जगप्पियामहो भयवं, खेयन्नए से कुसले महेसी आदि शब्द Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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