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________________ * ८० * कर्मविज्ञान : भाग ९ * तथा आगे कहे जाने वाले अठारह दोषरहित और बारह गुणों सहित हों, यानी इन अर्हताओं से युक्त हों, वे ही त्रैलोक्यपूजित देवाधिदेव अर्हन्, अर्हत् या अरहन्त कहलाते हैं, अन्य नहीं।' तीर्थंकर अर्हन्त परमात्मा पूजा के योग्य तथा अर्हताओं से युक्त होते हैं, इसी तथ्य को द्योतित करने के लिए उनमें चार विशिष्ट अतिशय माने जाते हैं(१) पूजातिशय, (२) ज्ञानातिशय, (३) वचनातिशय, और (४) अपायापगमातिशय । अर्हन्त भगवान का पूजातिशय: क्या और किस रूप में ? अर्हन्त तीर्थंकर भगवान पुण्य प्रकृति के उत्कर्ष एवं अतिशय के कारण अष्ट महाप्रातिहार्य आदि पूजातिशय रूप में उपलक्षित होते हैं। अष्ट महाप्रातिहार्य क्या हैं ? इसे समझ लेना चाहिए। पूज्यता प्रगट करने वाली जो सामग्री प्रतिहारी ( पहरेदार) की भाँति सदा साथ रहे, वह प्रातिहार्य है। अद्भुतता या दिव्यता से युक्त होने के कारण इसे 'महाप्रातिहार्य' कहा जाता है। वह पूज्यता -सामग्री आठ प्रकार की होने से उसे 'अष्ट महाप्रातिहार्य' कहते हैं । 'भगवतीसूत्र वृत्ति' में कहा गया है-श्रेष्ठ देवों द्वारा निर्मित अशोक वृक्ष आदि महाप्रातिहार्यरूपा पूजा के योग्य होने से वे 'अर्हन्त' कहलाते हैं। अष्ट महाप्रातिहार्य इस प्रकार हैं(१) अशोक वृक्ष, (२) देवों द्वारा सुगन्धित अचित्त पुष्प - वृष्टि, (३) दिव्य - ध्वनि (तीर्थंकर मुख से व्यक्त होने वाली सर्ववर्णोपेत दिव्यवाणी), (४) चामर (दोनों ओर दुलाए जाने वाले श्वेत चामर), (५) आसन ( भगवान जहाँ विराजमान होते हैं, वहाँ अशोक वृक्ष के नीचे पाठ - पीठ सहित स्थापित स्वर्णमय सिंहासन), (६) भा-मण्डल (भगवान के मुख के पीछे सूर्यमण्डल सम प्रकाशमान तेजोमण्डल), (७) देव-दुन्दुभि (देवों द्वारा भगवान के आगमन की उद्घोषणा जिससे की जाती है, वह देव-दुन्दुभि), और (८) आतपत्र ( छत्र ) ( भगवान के सिर पर देवों द्वारा रखे जाने वाले त्रैलोक-स्वामितासूचक तीन छत्र ) । २ १. (क) आवश्यकसूत्र सम्यक्त्व ग्रहण पाठ (ख) ‘अर्ह योग्ये, अर्ह पूजायाम्' इति धातुपाठः (ग) षड्दर्शनीय मंगलाचरण (घ) देवासुर-मणुएस अरिहा पूजा सुरूत्तमा जम्हा। (ङ) 'जैनतत्त्वकलिका' से भाव ग्रहण, पृ. ६ २. (क) अमर-वर-निर्मिताशोकादि - महाप्रातिहार्यरूपां पूजामर्हन्तीत्यर्हन्तः । - आवश्यकनियुक्ति, गा. ९२२ Jain Education International -भगवतीसूत्र वृत्ति मंगलाचरण (ख) अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टि दिव्यध्वनिश्चामरमासनं च । भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रमष्टौमहाप्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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