________________
* विशिष्ट अरिहन्त तीर्थंकर : स्वरूप, विशेषता, प्राप्ति-हेतु * ७९ *
हुए बिना पूर्ण आप्तपुरुष (यथार्थ वस्तुस्वरूपवादी) नहीं हो सकता। पूर्ण आप्तपुरुष हुए बिना त्रिलोकपूज्यता, देवाधिदेवपद, देवेन्द्र-पूज्यता, विश्व-वन्द्यता प्राप्त नहीं हो सकती; दूसरे शब्दों में कहें तो-तीर्थंकरपद की प्राप्ति नहीं हो सकती। अतः तीर्थंकर के लिये प्रयुक्त 'जिन' पद ध्वनित करता है कि वही आत्मा देवाधिदेव है, जीवन्मुक्त-सदेहमुक्त, सयोगी केवली, अरिहन्त या अर्हन्त परमात्मा है, वही परमेश्वर है, ईश्वर है, परब्रह्म है, सच्चिदानन्द है, अनन्त है, जिसने चतुर्गतिरूप संसार-अटवी में परिभ्रमण कराने वाले राग-द्वेष आदि अन्तरंग शत्रुओं को पूर्ण रूप से नष्ट कर दिया है। इसी तथ्य को आचार्य हेमचन्द्र ने 'योगशास्त्र' में प्रकट किया है--
“सर्वज्ञो जितरागादि-दोषस्त्रैलोक्यपूजितः।
यथास्थितार्थवादी च, देवोऽर्हन् परमेश्वरः॥" अर्थात् जो देवाधिदेव तीर्थंकर है, वह सर्वज्ञ है, रागादि विजेता है, त्रैलोक्यपूजित है, यथावस्थित-पदार्थवादी (आप्त) है, सुदेव है, अर्हन् है, वही परमेश्वर है।
तीर्थकर का अर्हन्त नाम क्यों सार्थक है ? पूर्वोक्त देवाधिदेव तीर्थंकर का वर्तमान में सर्वाधिक प्रचलित नाम अरिहन्त, अरहन्त या अर्हन है। सम्यक्त्व-ग्रहण के पाठ में भी “अरिहंतो (अरहंतो) मह देवो।" (अरिहन्त या अर्हन्त मेरे देव = देवाधिदेव हैं) कहा गया है। अर्हन शब्द के व्याकरणशास्त्र की दृष्टि से दो अर्थ होते हैं-जो सम्मान के योग्य हों अथवा पूजनीय (पूजा के योग्य) हों; क्योंकि अर्ह धातु दो अर्थों में प्रयुक्त होता है(१) योग्य होना, और (२) पूजित होना। इसलिए संस्कृत भाषा में कोषों में 'अर्हन्' के उपर्युक्त दोनों अर्थ ही किये गये हैं। 'षड्दर्शनीय मंगलाचरण' में भी कहा है“अर्हन् इत्यथ जैनशासनरताः।''-जैनशासन (जैनधर्म) में रत व्यक्ति अपने (उपास्य) पूज्य देव को ‘अर्हन्' कहते हैं।
प्रश्न हो सकता है-इस विश्व में माता-पिता, अधिकारी वर्ग, बुजुर्ग लोग, विद्या गुरु, सामाजिक या राष्ट्रीय नेता तथा राजा विविध देव आदि सम्मान के योग्य तथा पूजा के योग्य समझे जाते हैं, तो क्या उन सभी को अर्हन् कहा जा सकता है ? इसका समाधान आवश्यकसूत्र आदि धर्मशास्त्रों में, शक्रस्तव आदि में इस प्रकार किया गया है जो देव, दानव और मानव; इन तीनों के द्वारा पूज्य हों
१. (क) भगवतीसूत्र, श. १२, उ.९
(ख) 'चिन्तन की मनोभूमि' से भाव ग्रहण, पृ. ४५ (ग) योगशास्त्र' (आचार्य हेमचन्द्र), प्रकाश २, श्लो. ४
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org