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________________ * ७८ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * क्यों कहे जाते हैं ?' इसके उत्तर में भगवान महावीर ने कहा-“गौतम ! ये जो .. अरिहन्त भगवान हैं, वे समुत्पन्न (अनन्त) ज्ञान और (अनन्त) दर्शन के धारक होते हैं। अतीत, अनागत और वर्तमान को हस्तामलकवृत (प्रत्यक्ष) जानते हैं। वे अर्हत, जिन (राग-द्वेष विजेता), केवली (एकमात्र आत्म-ज्ञान में निष्ठ), सर्वज्ञ (सम्पूर्ण ज्ञानी) और सर्वदर्शी होते हैं। इस कारण से उन्हें देवाधिदेव कहा जाता है।" अन्य देवों से देवाधिदेव बढ़कर क्यों होते हैं ? जो स्वर्ग के देव होते हैं, उनमें अधिक से अधिक अवधिज्ञान तक होता है:. मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान उनमें नहीं होता। इस कारण वे अनन्त ज्ञान-दर्शन के धारक या त्रिकालज्ञ, केवली, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी नहीं होते। इसका कारण यह है कि वे राग-द्वेषादि विकारों के विजेता नहीं होते। बल्कि वे देव काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग-द्वेष आदि विकारों से न्यूनाधिक रूप में अभिभूत होते हैं। देवों के राजादेवेन्द्र-इन्द्र, यद्यपि देवों के द्वारा पूजनीय होते हैं, किन्तु वे जगद्वन्द्य, त्रिलोकपूज्य नहीं होते, जबकि देवाधिदेव अर्हन्त उपर्युक्त सभी विशेषताओं से युक्त होते हैं। मनुष्यों में भू-देव (विप्र) और नर-देव (राजा) तथा सामान्य साधु (आचार्य, उपाध्याय, साधु) भी धर्म-देव कहलाते हैं। वे भी छद्मस्थ, राग-द्वेष से अभिभूत एवं अल्पज्ञ होने के कारण देवाधिदेव के तुल्य नहीं होते। मनुष्यलोक के ये भू-देव, नर-देव (चक्रवर्ती) या धर्म-देव यदि विशिष्ट धर्माचरण करें तो अवधिज्ञान और चतुर्दश पूर्वधर संयमी मनुष्य को मनःपर्यायज्ञान तक हो सकता है। केवलज्ञान तो घातिकर्म-चतुष्टय का क्षय किये बिना, राग-द्वेष विजेता बने बिना नहीं होता। इसीलिए इन सबसे बढ़कर तीर्थंकर देवाधिदेव कहलाते हैं। तीर्थकर बनने से पूर्व उनमें वीतरागता और सर्वज्ञता का होना जरूरी है देवाधिदेवपद के कारणों का उल्लेख करते हुए शास्त्रकार ने कहा-“जिणा केवली सव्वण्णू सव्वदरिसी।" क्योंकि वे जिन (राग-द्वेषविजेता = वीतराग) केवली सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होते हैं। देवाधिदेव तीर्थंकर के ये विशेषण बड़े ही गम्भीर अनुभव के आधार पर रखे हैं। जैनदर्शन में सर्वज्ञता के लिए शर्त है-राग और द्वेष का क्षय हो जाना। राग और द्वेष का पूर्णतया क्षय किये बिना यानी उत्कृष्ट (पूर्ण) वीतरागभाव प्राप्त किये बिना सर्वज्ञता कथमपि सम्भव नहीं। सर्वज्ञता प्राप्त १. (प्र.) से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ देवाधिदेवा देवाधिदेवा ? (उ.) गोयमा ! जे इमे अरिहंता भगवंतो उप्पन्न-नाण-दंसणधरा तीय-पडुप्पन्नमणागया जाणया अरहा. जिणा केवली सव्वण्णू सव्वारसी से तेणटेणं जाव देवाधिदेवा देवाधिदेवा। -भगवतीसूत्र, श. १२, उ. ९ २. 'जैनतत्त्वकलिका' से भाव ग्रहण, पृ. ६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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