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________________ * विशिष्ट अरिहन्त तीर्थंकर : स्वरूप, विशेषता, प्राप्ति हेतु * ७५ * पाकर स्वयं तत्त्वों का सम्पूर्ण बोध पाना और अन्य भव्य जीवों को बोध प्राप्त कराना; राग-द्वेष के कारण उत्पन्न होने वाले कर्मबन्धनों से स्वयं मुक्त होना और दूसरों को मुक्त कराना; ये सब गुण कितने महान् और मंगलमय आदर्श के प्रतीक हैं? इन गुणों से यह स्पष्ट प्रतीत होता है, जिस विशिष्ट गुण को तीर्थंकर परमात्मा ने अपने जीवन में जीया है, स्व- पुरुषार्थ द्वारा उपलब्ध किया है, किसी ईश्वर, भगवान या शक्ति की कृपा से नहीं, किन्तु अपने पराक्रम के बल पर प्राप्त किया है, उसी गुण को प्राप्त करने के लिए वे दूसरों को प्रेरणा या मार्गदर्शन देते हैं। जो लोग एकान्त निवृत्तिवाद के गीत गाते हैं, अपनी आत्मा को ही एकमात्र तारने का स्वप्न देखते हैं, उन्हें तीर्थंकरों की इन और पूर्वोक्त विशेषताओं से सबक लेना चाहिए। भगवान को क्या लाभ हानि है - दूसरे जीवों के मुक्त होने, न होने से; दूसरे जीवों द्वारा राग-द्वेष जीतने, न जीतने से बोध प्राप्त करने, न करने से ? वे तो कृतकृत्य हो चुके हैं। मोहकर्म का सर्वथा क्षय हो जाने से उन्हें अपनी प्रसिद्धि, प्रशंसा, पूजा, प्रतिष्ठा य़ा संघ चलाने, अनुयायी बढ़ाने का मोह या अन्य कोई भी स्वार्थ नहीं है। किन्तु पूर्वबद्ध तीर्थंकर नामकर्म की उत्कृष्ट पुण्य प्रकृति के कारण सहज भाव से ऐसी वात्सल्य - प्रेरक, करुणामूलक, मैत्रीवर्द्धक प्रवृत्तियाँ उनके द्वारा मुक्ति प्राप्त होने तक होती रहती हैं। यही कारण हैं कि 'नन्दीसूत्र' के मंगलाचरण में जगन्नाथ, जगद्बन्धु, जगत्- पितामह, जगद्गुरु, जगदानन्द, जगज्जीवयोनिविज्ञायक आदि विशेषणों से तीर्थंकर महावीर की स्तुति की है । ' सभी तीर्थंकर एक बार घातिकर्मों से सर्वथा रहित होने से सर्वथा आवरणरहित एवं सर्वज्ञ हो जाते हैं। उनकी सशरीर आत्मा को सर्वज्ञता प्राप्त हो जाने के बाद वे पुनः नया जन्म, नया देह धारण नहीं करते। उसी शरीर में जितने काल पर्यन्त उनका आयुष्य है, उस आयुष्य को भोगकर (यानी उतने समय तक उस शरीर में रहकर ) फिर सर्वथा भययुक्त, देहयुक्त और कर्मयुक्त होकर सिद्ध-पर्याय को प्राप्त कर लेते हैं, यानी शाश्वत शुद्ध आत्म-स्वरूप में सदा-सदा के लिए अवस्थित हो जाते हैं। ऐसे तीर्थंकर जिन या जिनेन्द्र भी कहलाते हैं : क्यों और कैसे ? ऐसे वीतराग स्व-पर- उपकारी तीर्थंकर को जिन जिनेन्द्र, जिनवर या जिनेश्वर भी कहते हैं । 'मूलाचार' में कहा है- अर्हन्त भगवान ने क्रोध, मान, माया 7 १. (क) 'चिन्तन की मनोभूमि' से भाव ग्रहण, पृ. ४४ (ख) 'जैनतत्त्वकलिका' से भाव ग्रहण (ग) जयइ जगजीवजोणी-वियाणओ जगगुरु जगाणंदो । जगबन्धु जगणा जगपिया महोभयवं ॥ २. 'जैनभारती, वीतराग वन्दना विशेषांक' से भाव ग्रहण, पृ. ११६ Jain Education International - नन्दीसूत्र, मंगलाचरण पाठ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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