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________________ * ७४ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * तीर्थंकर तो चक्रवर्तियों को भी उपदेश द्वारा सन्मार्ग पर लाने वाले चक्रवर्तियों के भी चक्रवर्ती हैं। ___ अप्रतिहत-ज्ञान-दर्शन-धारक-तीर्थंकर भगवान अप्रतिहत (निराबाध) ज्ञानदर्शन के धारक होते हैं। व्यावृत्तछद्म-तीर्थंकर भगवान छद्म से रहित होने के कारण व्यावृत्तछा कहलाते हैं। छद्म के तीन अर्थ हैं-आवरण, छल और प्रमाद। तीर्थंकर भगवान ज्ञानावरण आदि चार घातिकर्मों के आवरण से पूर्णतया रहित हो गए, इसलिए.के . व्यावृत्तछद्म कहलाते हैं। निरावरण होने के कारण उनकी आत्मा अज्ञान और मोह आदि से सर्वथा रहित होती है। अतः तीर्थंकर भगवान छल और प्रमाद से रहित होने के कारण भी व्यावृत्तछद्म कहलाते हैं। तीर्थंकर भगवान का जीवन में छलप्रपंच, आडम्बर, प्रदर्शन, दिखावा, अन्तर-बाह्य भिन्नरूपता, पक्षपात, राग (आसक्ति) या द्वेष (घृणा) बिलकुल नहीं होते। उनका जीवन समभाव से ओतप्रोत, सरल, निश्छल और समरस होता है। : किसी भी प्रकार की गोपनीयता उनके तन-मन-वचन में नहीं होती। अन्दर और बाहर में सर्वत्र समत्व और स्पष्टभाव रहता है। जो कुछ भी परम सत्य उन्होंने प्राप्त किया, निश्छलभाव से जनसमूह को प्रदान किया। पुण्यशाली हो या पापी, धर्मात्मा हो या दुरात्मा, चक्रवर्ती हो या साधारण जन, विद्वान् हो या अविद्वान्, बुद्धिमान हो या मन्द-बुद्धि सबको उन्होंने समभाव से, आत्मौपम्यभाव से देखा। यही आप्त जीवन है, जो उनके कथन में प्रामाणिकता, विश्वसनीयता, यथार्थ वस्तुस्वरूप प्रकाशन, सर्वजीव-हितैषिता लाता है। आप्तपुरुष का वचन-प्रवचन अकाट्य, प्रमाणाबाधित, सर्वजीव-हितकर, तत्त्वोपदेशक तथा मिथ्यामार्ग का निराकरणकर्ता होता है।' आचार्य समन्तभद्र का आप्त लक्षण इसी तथ्य को उजागर करता है। तीर्थकर भगवान के स्व-पर-उपकारक जीवन के विशेष गुण तीर्थंकरों के लिये ये विशेषण, उनके उच्च जीवन, स्व-पर-कल्याणकारी, स्व-पर-उपकारी जीवन के प्रतीक हैं। राग-द्वेष को जीतना, दूसरे साधकों को अन्तरंग शत्रुओं से जिताना या जीतने की युक्ति बताना; संसार-सागर से स्वयं तैरना, अन्य प्राणियों को सन्मार्गोपदेश देकर तैराना = पार उतारना; केवलज्ञान -रत्नकरण्ड श्रावकाचार १. आप्तोषज्ञमनुल्नध्यमदृष्टेष्ट विरोधकम्। तत्त्वोपदेशकृत् सार्वं शास्त्रं का पथ-घट्टनम्॥ २. (क) चिन्तन की मनोभूमि' से साभार भाव ग्रहण, पृ. ४२-४३ त) 'जनतन्चकालका' से भाव ग्रहण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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