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* विशिष्ट अरिहन्त तीर्थंकर : स्वरूप, विशेषता, प्राप्ति हेतु * ७३ *
धर्मवर-चातुरन्त - चक्रवर्ती - वे धर्म के पूर्ण आचरण द्वारा (जन्म-मरणादिरूप) चारों गतियों का अन्त करने वाले धर्म के श्रेष्ठ चक्रवर्ती हैं; जो चार दिशारूप चार गतियों का अन्त करते हैं । '
जब देश में चारों ओर अराजकता छा जाती है तथा छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त होकर देश की एकता नष्ट हो जाती है, तब चक्रवर्ती का षट्खण्डात्मक चक्र ही देश में पुनः राज्य-व्यवस्था करता है । वह सारी बिखरी हुई देश की शक्ति को एक सार्वभौम शासन के नीचे लाता है। उसके बिना देश में शान्ति और सुव्यवस्था हो नहीं सकती। अतः चक्रवर्ती इसी उद्देश्य की पूर्ति करता है । वह पूर्व, पश्चिम और दक्षिण में समुद्र पर्यन्त तथा उत्तर में हिमवान् पर्यन्त अपना अखण्ड साम्राज्य स्थापित करता है, इस कारण चतुरन्त चक्रवर्ती कहलाता है।
तीर्थंकर भगवान् भी नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव, इन चार गतियों का (सदा के लिए जन्म-मरण का ) अन्त करते हैं और विश्व में सम्यग्ज्ञान-दर्शनचारित्ररूप धर्म-प्रधान शासन ( राज्य ) स्थापित करते हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तपरूप चतुर्विध धर्म की साधना अन्तिम कोटि तक करते. हैं, इसलिए वे धर्म के चतुरन्त चक्रवर्ती कहलाते हैं । तीर्थंकर अपने धर्म चक्र द्वारा वस्तुतः संसार में फैली हुई धार्मिक अराजकता, स्व-स्वमतजन्य दुराग्रह के कारण . विविध सम्प्रदायों की आपाधापी का अन्त करके संसार में अखण्ड धर्मराज्य की स्थापना करते हैं, जिससे विश्व में भौतिक और आध्यात्मिक अखण्ड शान्ति सब प्रकार से कायम हो सकती है।
दीर्घदृष्टि से विचार किया जाए तो भौतिक जगत् के प्रतिनिधि चक्रवर्ती से यह संसार शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता। चक्रवर्ती तो प्रायः भोगवासना का दास होता है। उसके चक्र के मूल में साम्राज्य - लिप्सा का तथा अपनी स्वार्थसिद्धि का विष छिपा होता है और फिर चक्रवर्ती का शासन प्रायः निर्दोष मानव प्रजा के रक्त से सिंचित होता है। अतः वहाँ जनता के हृदय पर नहीं, शरीर पर ही विजय पाने का प्रयत्न होता है; जबकि जैन तीर्थंकर पहले अपनी सम्यग्दर्शन -ज्ञान-चारित्रतपः साधना के बल से मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, राग-द्वेष, मोह आदि अन्तरंग शत्रुओं को नष्ट करते हैं, फिर जनता के कल्याण के लिए धर्म- तीर्थ की स्थापना करके धर्म चक्रवर्ती बनते हैं। अखण्ड आध्यात्मिक शान्ति का साम्राज्य स्थापित करते हैं। वे जनता के शरीर के नहीं हृदय के सम्राट् बनते हैं। वास्तविक सुख-शान्ति इन्हीं धर्म-चक्रवर्तियों के शासन की छत्रछाया में प्राप्त हो सकती है ।
१. (क) देखें- आवश्यकसूत्र, श्रमणसूत्र में शक्रस्तव ( नमोत्थुणं) का पाठ और उसकी व्याख्या (ख) 'जैनतत्त्वकलिका' से भाव ग्रहण, पृ. २४-२५
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