SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * ७६ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * और लोभ, इन चार कषायों को जीत लिया है, इस कारण वे 'जिन' हैं। 'नियमसार तात्पर्य वृत्ति' के अनुसार-नाना जन्मरूपी अटवी को प्राप्त कराने के कारणभूत मोह-राग-द्वेषादि को जो जीत लेता है, वह 'जिन' है। ‘पंचास्तिकाय तात्पर्य वृत्ति' में कहा है-अनेक भवों के गहन विषयों रूप संकटों के कारणभूत कर्मरूपी शत्रुओं को जो जीत लेता है, वह 'जिन' है।' तीर्थंकर के लिये प्रयुक्त 'जिन' शब्द का रहस्य तीर्थंकर के लिए प्रयुक्त होने वाले 'जिन' शब्द का रहस्य क्या है ? इसे भी समझ लेना आवश्यक है। 'जिन' के उपर्युक्त लक्षणों को देखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि बाह्य शत्रुओं को जीतने वाला 'जिन' नहीं कहलाता, किन्तु जो राग, द्वेष, मोह, कषाय तथा कर्म आदि आन्तरिक शत्रुओं को जीत लेता है, वही 'जिन' कहलाता है। भगवान महावीर की अन्तिम देशनारूप 'उत्तराध्ययनसूत्र' से 'जिन' शब्द का रहस्यार्थ ज्ञात हो जाता है। वहाँ कहा गया है-“दुर्जय संग्राम में लाखों सुभटों (योद्धाओं या शत्रुओं) को जो जीत लेता है (उसे हम वास्तविक जय नहीं मानते), किन्तु एक आत्मा को जीतना ही परम जय है।" "हे पुरुष ! तू आत्मा के साथ ही युद्ध कर। बाह्य शत्रुओं के साथ युद्ध करने से तुझे क्या लाभ है? जो आत्मा द्वारा आत्मा को जीतता है, वही सच्चा सुख प्राप्त करता है।" 'आचारांगसूत्र' में भी कहा है-"अपनी आत्मा के साथ युद्ध कर; तुझे बाह्य व्यक्तियों या शत्रुओं के साथ युद्ध करने से क्या लाभ है?"२.. इन प्रेरणासूत्रों से यह निश्चित होता है कि यहाँ बाह्य शत्रुओं के साथ लड़ने की और उन पर विजय पाने की बात नहीं, अपितु आन्तरिक शत्रुओं के साथ १. (क) मूलाचार ५६१ (ख) नियमसार ता. वृ.१ (ग) पंचास्तिकाय ता. वृ. १/४/१८ २. (क) जो सहस्सं सहस्साणं संगामे दुज्जए जए। एगं जिणेज्ज अणाणं एस सो परमो जओ॥३४॥ अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुझेण बज्झओ। अप्पाणमेव अप्पाणं, जइत्ता सुहमेहए॥३५॥ (ख) इम्मेण चेव जुल्झाहि, किं ते जुझेण वज्झओ। (ग) अप्पामित्तममित्त च दुप्पट्ठिओ सुप्पट्ठिओ। (घ) आत्मैव आत्मनो बन्धरात्मैव रिपुरात्मनः॥५॥ वन्धुरात्माऽत्मनस्तस्य येनाऽत्मैवात्मना जिनः। अनात्मस्तु शत्रुत्वे वर्तेताऽत्मैव शत्रुवत्॥६॥ जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः। शीतोष्णसुख-दुःखेसु तथा मानाऽपमानयोः॥७॥ -उत्तराध्ययन ९/३४-३५ -आचारांग, श्रु. १, अ. ५, उ. ३ -उत्तराध्ययन २०/३७ -भगवद्गीता ६/५-७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy