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________________ * विशिष्ट अरिहन्त तीर्थंकर : स्वरूप, विशेषता, प्राप्ति-हेतु * ६९ * अनादि है। यह संसार है और संसार का बन्धन है, तभी से धर्म है और उसका फल मोक्ष भी है। अतः यहाँ जो धर्म की आदि करने वाला कहा गया है, उसका तात्पर्य यह है कि तीर्थंकर अरिहन्त भगवान धर्म का निर्माण नहीं करते, परन्तु अपने-अपने युग में धर्म में जो विकार आ जाते हैं, धर्म के नाम पर मूढ़ताएँ, मिथ्या परम्पराएँ, मिथ्या आचार-विचार फैल जाते हैं, उनकी शुद्धि करके द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावानुसार नये सिरे से धर्म की मर्यादाओं का विधान करते हैं। इसके अतिरिक्त तीर्थंकर भगवान अपने-अपने शासन (संघ) की अपेक्षा से श्रुत-चारित्र धर्म की या रत्नत्रयरूप धर्म की आदि (निर्माण) करते हैं। इसलिए भी आदिकर कहलाते हैं। कोई कह सकता है कि धर्म-तीर्थ की आदि (आद्य स्थापना) करने वाले तो ऋषभदेव हुए थे, फिर दूसरे तीर्थंकरों को (धर्म-तीर्थ के आदि) तीर्थंकर क्यों कहा जाता है ? इसका समाधान यह है कि प्रत्येक तीर्थंकर अपने युग में प्रचलित धर्म-परम्परा, धर्म-मर्यादा में समयानुसार परिवर्तन करता है। इस दृष्टि से नये धर्म-तीर्थ यानी नये घाट का निर्माण करने के कारण उन्हें आदिकर तीर्थंकर कहा जाता है। धर्म का मूल प्राण वही होता है, केवल क्रियाकाण्ड रूप बाह्य चारित्र = व्यवहार चारित्र का ढाँचा और शरीर बदल देते हैं। पुराने शब्दों और पद्धतियों में भी द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावानुसार परिवर्तन करते हैं। इस विषय में प्रमाण है-भगवान पार्श्वनाथ और भगवान महावीर का शासन भेद।' बीस और एक सौ सत्तर तीर्थकर : कहाँ-कहाँ, कब और कैसे-कैसे ? प्रत्येक काल-चक्र में इस प्रकार के २४ तीर्थंकर होते हैं। प्राचीन धर्म-ग्रन्थों में अतीत में हुए, वर्तमान में विहरमान और भविष्य में होने वाले तीर्थंकरों का परिचय दिया गया है। इस काल-प्रवाह में जो २४ तीर्थकर हुए थे, वे सर्वकर्म क्षय करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो चुके हैं। वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र में सीमन्धर स्वामी आदि २० तीर्थंकर विद्यमान हैं, जो विहरमान कहलाते हैं। जब कम से कम तीर्थंकर होने का काल होता है, तब भरत, ऐरावत क्षेत्र में तीर्थंकर होते ही नहीं तथा पाँच महाविदेह क्षेत्र में भी प्रत्येक में चार-चार तीर्थंकर होते हैं। इस प्रकार ५ x ४ = २० तीर्थंकर वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र में हैं। जब अधिक होने का समय होता है, तभी प्रत्येक महाविदेह क्षेत्र के ३२ विजयों में से प्रत्येक विजय में एक-एक तीर्थंकर होते हैं, यों ३२ तीर्थंकर एक महाविदेह में होते हैं, पाँचों महाविदेह क्षेत्रों में ३२ x ५ = १६0 तीर्थंकर होते हैं तथा ५ भरत और ५ ऐरावत क्षेत्र में भी प्रत्येक में एक-एक तीर्थंकर होते हैं। यों अधिक से अधिक १६0 + १0 = कुल मिलाकर १७0 की संख्या बन जाती है। प्रत्येक तीर्थंकर १. नमोऽत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं आइगराणं, तित्थयराणं । -आवश्यकसूत्र शक्रस्तव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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