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* ६८ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
वे त्रिलोक-पूज्य हैं। स्वर्ग के सभी (६४) इन्द्र भी प्रभु के चरण-कमलों की धूल मस्तक पर चढ़ाते हैं और अपने को धन्य-धन्य समझते हैं । तीर्थंकरत्व में अरिहंतों की विशिष्ट महत्ता और अर्हता रही हुई है।
इस जगत् में स्वोपकार, निज स्वार्थ करने वाले तथा स्वार्थ, वासना, तृष्णा, अहंता एवं कामना-नामना से प्रेरित होकर परोपकार करने वाले फलाकांक्षी तो अनेक मिलते हैं, परन्तु स्वोपकार के साथ निःस्वार्थ, निष्काम, निःस्पृहभाव से फलाकांक्षारहित होकर परोपकार करने वाले विरले ही होते हैं । परोपकारकर्त्ताओं में भी अन्न-पानादि के दान देने वाले भी अनेक होते हैं, किन्तु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के दानकर्त्ता तो विरलातिविरल होते हैं। तीर्थंकर परमात्मा तीर्थ-स्थापना द्वारा इस विरलातिविरल कार्य का सम्पादन करते हैं और जगत् के सभी जीवों पर इस बहुमूल्य अतिदुर्लभ आध्यात्मिक उपकार की वर्षा करते हैं।
वे स्वयं पहले संसार की मोह-माया और वासना का परित्याग करते हैं, त्याग और वैराग्य की अखण्ड साधना में रत रहते हैं तथा अनेकानेक भयंकर कष्ट उठाकर, पहले स्वयं सत्य की पूर्ण ज्योति के दर्शन करते हैं अर्थात् केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त करते हैं, तत्पश्चात् मानव जगत् को धर्मोपदेश देकर असत्य-प्रपंच, अधर्म और पाप के चंगुल से छुड़ाते हैं । वे नरक-स्वरूप उन्मत्त एवं विषयासक्त संसार को सत्यं शिवं सुन्दरं के सम्मुख करते हैं और सत्य के, सद्धर्म के पथ पर लगाते हैं. एवं संसार में पूर्ण सुख-शान्ति का आध्यात्मिक साम्राज्य स्थापित करने का पुरुषार्थ करते हैं । वे संसार के भव्य जीवों को यही बोध देते हैं कि "स्वयं धर्मपूर्वक जीओ, दूसरों को सुखपूर्वक जीने दो और अपने भौतिक सुखों की परवाह न करके भी दूसरों को अधिकाधिक धर्मपूर्वक जीने में सहयोग दो - सहायता दो।” तीर्थंकर इस महान् सिद्धान्त को जीवन में उतार लेते हैं। संक्षेप में तीर्थंकर नामकर्म के उदयवश तीर्थंकर वह है, जो संसार को सद्धर्म का उपदेश देता है, आध्यात्मिक तथा नैतिक पतन की ओर ले जाने वाले पापाचारों से बचाता है। संसार को भौतिक सुख-लालसा से हटाकर अध्यात्म-सुखों का रसिक बनाता है। तीर्थंकरों की परमोपकारिता-प्रकटकारिणी कतिपय विशेषताएँ
तीर्थंकरों की असाधारण विशेषताओं तथा परमोपकारिताओं को प्रगट करने वाले अनेक विशेषण शक्रस्तव ( नमोत्थुणं) के पाठ में प्रयुक्त किये गये हैं । वे क्रमशः इस प्रकार हैं- सर्वप्रथम 'अरिहन्त' और 'भगवन्त' विशेषण हैं, जिनकी व्याख्या हम कर चुके हैं।
आदिकर - इसके पश्चात् विशेषण है - आदिकर ( धर्म की आदि करने वाले ) | प्रश्न होता है-धर्म तो अनादि है, फिर उसकी आदि कैसे ? उत्तर है- धर्म अवश्य
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