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________________ * विशिष्ट अरिहन्त तीर्थंकर : स्वरूप, विशेषता, प्राप्ति-हेतु * ६७ * पदार्थ एवं त्रिकाल के ज्ञाता हैं, मोह-राग-द्वेषरूप त्रिपुर के दाहक हैं। रत्नत्रयरूपी त्रिशूल द्वारा मोहरूपी अन्धासुर के विजेता, आत्म-स्वरूपनिष्ठ तथा दुर्नय का अन्त करने वाले हैं।'' 'स्थानांगसूत्र' की टीका में अर्हन्त (अरहन्त) की माहात्म्य एवं अर्हतासूचक परिभाषा इस प्रकार की गई है-“उत्कृष्ट भक्ति-तत्पर सुरासुर-समूह द्वारा विशेष रूप से रचित, जन्मान्तररूप महान् आलवाल (क्यारी) में उपार्जित और निर्दोष वासना-भावनारूपी जल से सिंचित पुण्यरूप महावृक्ष के कल्याणफल-सदृश अशोक-वृक्षादि अष्ट महाप्रातिहार्यरूप पूजा के योग्य तथा सर्वरागादि शत्रुओं के सर्वथा क्षय से मुक्ति मन्दिर के शिखर पर आरूढ़ होने (योग्य होने) से अर्हन्त (अरहन्त) कहलाते हैं।” अरिहन्त (तीर्थंकर) परमात्मा में ब्रह्मा, विष्णु, महेश के विशुद्ध आध्यात्मिक तत्त्वों को घटित करते हुए डॉ. साध्वी श्री दिव्यप्रभा जी कहती हैं-“अरिहंत परमात्मा सर्जनहार हैं, पर मोक्षोपयोगी धर्म-शासन के; पालनहार हैं, पर धर्म-गुंण के और अभय (दान) के द्वारा समस्त जीवराशि के; संहारक हैं, पर पापमार्ग, दुःख और दुर्गति के (जन्म-मरण के)। वे सर्वव्यापी हैं, पर ज्ञान से; मुक्त हैं, पर बद्ध-मुक्त (जीवन्मुक्त) हैं, अर्थात् सकलजन-प्रत्यक्ष बद्ध अवस्था से मुक्त हैं। अरिहन्त (तीर्थंकर) परमात्मा अवतारी, लीलाधारी या इच्छाधारी देव नहीं, पर सकल अवतार, लीला और इच्छाओं से सदा मुक्त हैं। प्रयोजन-अभाव के कारण (मोक्ष में जाने के बाद) लौटकर पुनः कभी संसार में नहीं आते हैं। इनके लिए देवदूत या देवपुत्र की कल्पना असंगत है, क्योंकि ये तो देवों के पूज्य, आराध्य और उपास्यरूप देवाधिदेव की अवस्था को प्राप्त हो चुके होते हैं।" चूँकि वीतराग तीर्थंकर देव विश्व-कल्याणकारी धर्म के प्रवर्तक होते हैं; अतः असुर और सुर, नर और नारी आदि सभी के पूजनीय होते हैं। तीनों लोकों में सदेह मुक्त साकार जीवन्मुक्त वीतराग परमात्मा की उपासना की जाती है। इसलिए .१.. (क) घणघाइकम्मरहिया केवलणाणाइ-परमगुणसहिया। चोतिस-अदिसय-जुत्ता अरिहंता एरिसा होति।। -नियमसार, गा. ७१ (ख) ते जो दिट्टी णाणं इड्ढी सोक्खं तहेव ईसरियं । तिहवण-पहाण-दइयं माहप्पं जस्स सो अरिहो। -नियमसार ता. वृ.७ (ग) धवला १/१, १, १/२३-२५/४५ (घ) अर्हन्ति अशोकाद्यष्टप्रकारां परमभक्तिपर-सुरासुर-विसर-विरचितां जन्मान्तर महालवाल-विरूढान वद्य-वासना-जलाभिषिक्त-पुण्य महातरु-कल्याणफलकल्पा . महाप्रातिहार्यरूपां पूजां निखिल-प्रतिपन्थि प्रक्षयात् सिद्धि-सौध-शिखरारोहणं चेस्यहन्तः। __ -स्थानांगसूत्र वृत्ति, अ. ४, उ. १, पत्र ११६ (ङ) “चिन्तन की मनोभूमि से भाव ग्रहण, पृ. २९, ४७ ... (च) 'जैनतत्त्वकलिका' से भाव ग्रहण, पृ. २२ (छ) 'अरिहन्त की प्रस्तुति' (डॉ. साध्वी श्री दिव्यप्रभा जी) से साभार उद्धृत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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