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________________ * ७० * कर्मविज्ञान : भाग ९ * अपने-अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के अनुसार धर्म-तीर्थ की स्थापना, धर्म-मर्यादा, धर्म-परम्परा में परिवर्तन करते हैं।' स्वयं-सम्बुद्ध-तीर्थंकर भगवान स्वयं-सम्बुद्ध होते हैं। स्वयं-सम्बुद्ध का अर्थ हैअपने आप प्रबुद्ध होने = बोध पाने = जागने वाले। संसार में तीन श्रेणी के लोग होते हैं-(१) हजारों लोग ऐसे हैं, जो जगाने पर भी नहीं जागते। उनकी अज्ञान-निद्रा बहुत गहरी है। (२) कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो स्वयं तो नहीं जग सकते, किन्तु दूसरों के द्वारा जगाने पर अवश्य जाग जाते हैं। (३) तीसरी श्रेणी. उन पुरुषों की है, जो समय पर स्वयमेव जाग जाते हैं, मोह-निद्रा का त्याग कर देते हैं और मोह-निद्रा में प्रसुप्त जगत् को भी अपनी आवाज से जगा देते हैं। तीर्थंकर परमात्मा भी इसी श्रेणी के हैं, वे स्वयमेव जाग जाते हैं, स्वयं अपने पथ का निर्माण करते हैं। उनका पथ-प्रदर्शक न तो कोई गुरु होता है और न ही शास्त्र। वे अपना मोक्षमार्ग स्वयं खोज निकालते हैं। स्वावलम्बन के इस आदर्श पर चलकर वे धर्मानुकूल नई परम्परा का सृजन करते हैं। स्वयं धर्म-क्रान्ति करते हैं। पुरुषोत्तम भगवान पुरुषों में उत्तम होते हैं। बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के असाधारण और अलौकिक व्यक्तित्व एवं गुण-सम्पदा के कारण वे पुरुषोत्तम हैं। उनका रूप त्रिभुवन-मोहक होता है, उनका तेज सूर्य के तेज से भी बढ़कर होता है, उनका मुखचन्द्र सुरासुर-नयनों के मन को हरने वाला होता है। उनके दिव्य शरीर में १00८ उत्तमोत्तम लक्षण होते हैं। वज्रऋषभनाराच संहनन और समचतुरनसंस्थान उनके अनूठे सौन्दर्य को व्यक्त करते हैं। उनका परम औदारिक शरीर देवों के वैक्रियशरीर को भी मात करने वाला होता है। ऐसा होता है उनका बाह्य व्यक्तित्व। अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय के कारण वीतरागता, समता और क्षमता (अनन्त शक्ति) के कारण उनका आन्तरिक व्यक्तित्व भी अनूठा होता है। इन गुणों की समता मनुष्य तो क्या देव भी नहीं कर सकते। १. (क) देखें-चौबीस तीर्थंकरों तथा बीस विहरमान तीर्थंकरों का चरित्र परिचय विभिन्न धर्म-ग्रन्थों में (ख) चौबीस तीर्थंकरों के नाम-(१) श्री ऋषभदेव जी, (२) श्री अजितनाथ जी, (३) श्री संभवनाथ जी, (४) श्री अभिनन्दन जी, (५) श्री सुमतिनाथ जी, (६) श्री पद्मप्रभ जी, (७) श्री सुपार्श्वनाथ जी, (८) श्री चन्द्रप्रभ जी, (९) श्री सुविधिनाथ जी, (१०) श्री शीतलनाथ जी, (११) श्री श्रेयांसनाथ जी, (१२) श्री वासुपूज्य जी, (१३) श्री विमलनाथ जी, (१४) श्री अनन्तनाथ जी, (१५) श्री धर्मनाथ जी, (१६) श्री शान्तिनाथ जी, (१७) श्री कुंथुनाथ जी, (१८) श्री अरनाथ जी, (१९) श्री मल्लिनाथ जी, (२०) श्री मुनिसुव्रतस्वामी जी, (२१) श्री नमिनाथ जी, (२२) श्री अरिष्टनेमि जी, (२३) श्री पार्श्वनाथ जी, (२४) श्री महावीर स्वामी जी। (ग) 'चिन्तन की मनोभूमि' से भाव ग्रहण, पृ. ४९, २९ (घ) “जैनभारती, वीतराग वन्दना विशेषांक' से भाव ग्रहण, पृ. ७२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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