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* ५६ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
विकास की दृष्टि से कुछ भी अन्तर नहीं है। सभी अरिहन्त अन्तरंग में एक ही भूमिका, एक ही सयोगी केवली गुणस्थान (१३३ गुणस्थान) में होते हैं। सबका ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य (शक्ति) समान ही होता है। सब-के-सब अरिहन्त क्षीणमोह की भूमिका पार करके पूर्ण वीतराग (सयोगी केवली) गुणस्थान में होते हैं। आध्यात्मिक पूर्णता की अपेक्षा उनमें और तीर्थंकर में रंचमात्र भी अन्तर नहीं होता, क्योंकि क्षायिक भाव में जरा भी तरतमता का भेद नहीं होता। यही कारण है कि भगवान महावीर ने अपने ७०० शिष्यों को, जो केवलज्ञानी अरिहन्त हो गए थे, : अपने समान बतलाया है। उन्होंने उनसे वन्दना भी नहीं कराई। प्रत्येक तीर्थंकर अरिहन्त श्रमणसंघ (धर्मतीर्थ) का प्रवर्तक, संस्थापक एवं नेता (धर्मनायक) होता है, परन्तु वह अर्हद्दशा-प्राप्त साधकों से वन्दन नहीं कराता। अर्हद्दशा की यह वह भूमिका है, जो आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से बराबर की भूमिका है। इसमें न कोई ऊँचा है, न नीचा; न वरिष्ठ है, न कनिष्ठ; न उत्कृष्ट है, न निकृष्ट; न सीनियर है, न जूनियर। अतएव जब हम 'नमो अरिहंताणं' कहते हैं, तब ऋषभदेव से लेकर महावीर स्वामी आदि सब तीर्थंकरों को, राम, हनुमान, महादेव आदि सभी अर्हद्भाव-प्राप्त वीतराग (राग-द्वेषरहित) महापुरुषों को, स्व-लिंगी अरिहन्तों को, अन्य-लिंगी अरिहन्तों को, गृह-लिंगी अरिहन्तों को, स्त्री-अरिहन्तों को, पुरुषअरिहन्तों को, इतना ही नहीं, भूमण्डल पर के अतीत, अनागत और वर्तमान के अनन्तानन्त अरिहन्तों को नमस्कार हो जाता है। नमस्कारकर्ता की दृष्टि से शब्द रूप में 'नमो अरिहंताणं' नमस्कार पाठ एक है, परन्तु वह बहुवचनान्त है, इसलिए सभी नमस्करणीय अरिहन्तों को भाव-नमन की दृष्टि से अनन्त हो जाता है।' कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र के निम्नोक्त दो श्लोक इसी तथ्य को प्रकट करते हैं
“भव-बीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य। ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥१॥ यत्र तत्र समये योऽसि सोऽस्यभिधया यया तया।
वीतदोष-कलुषः स चेद्, एक एव भगवन् ! नमोऽस्तु ते॥२॥" -संसाररूपी बीज के अंकुर के जनक (कारणभूत) राग-द्वेषादि दोष जिसके क्षय हो चुके हों, वह चाहे ब्रह्मा हो, विष्णु हो, हर (महादेव) हो या जिन हो; उसे मेरा नमस्कार है। जिस-जिस समय में जो-जो व्यक्ति, जिस किसी भी नाम से हो गया हो, यदि रागादि दोषों की कलुषता से रहित हो चुका है, तो (मेरे लिये) वह एक ही है। भगवन् ! आपको मेरा नमस्कार हो।' १. 'श्रमणसूत्र' (उपाध्याय अमर मुनि) से भाव ग्रहण २. 'महादेव स्तोत्र' (आचार्य हेमचन्द्र) से भाव ग्रहण
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