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________________ * अरिहन्त : आवश्यकता, स्वरूप, प्रकार, अर्हता, प्राप्त्युपाय * ५५ * जाने पर पुनः प्रादुर्भूत = अंकुरित न होना ‘अरुह'। अरुह रूप से जिन्होंने समस्त कर्मों को नष्ट कर दिया है, वे अरुहन्त कहलाते हैं। 'तत्त्वार्थसूत्र भाष्य में यही व्याख्या की गई है। ऐसे अरिहन्त को भगवान भी कहते हैं। 'भगवान' शब्द का भारतवर्ष के धार्मिक जगत् में उच्चकोटि का स्थान है। 'भगवान' शब्द 'भग' शब्द से निष्पन्न हुआ है। भग वाली आत्मा भगवान होती है। उसमें छह गुण निहित हैं, जिनका उल्लेख आचार्य हरिभद्रसूरि ने किया है "ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसः श्रियः। धर्मस्याथ प्रयत्नस्य षण्णां भग इतीङ्गना॥" 'भग' शब्द में छह अर्थ इंगित हैं। यथा-समग्र ऐश्वर्य अर्थात् प्रताप, वीर्य यानी शक्ति या उत्साह, यशःकीर्ति, श्री = ज्ञानादि लक्ष्मी अथवा शोभा, धर्म = संवर-निर्जरारूप धर्म या सदाचार और प्रयत्न यानी कर्तव्य की पूर्ति के लिये किया जाने वाला अदम्य पुरुषार्थ। जहाँ मोक्षस्य पाठ है वहाँ अर्थ होता है-मोक्ष के लिये किया जाने वाला शुद्ध पुरुषार्थ। ये छहों गुण 'भग' शब्द के अर्थ में गर्भित हैं। अतः ये छहों गुण जिनमें पूर्ण रूप से विद्यमान हों, वे भगवान कहलाते हैं। जैन-संस्कृति मानव में भगवस्वरूप की झाँकी देखती है। अतः जो साधक अपने मोक्षमार्ग में पुरुषार्थ द्वारा वीतरागभाव के पूर्ण अध्यात्म-विकास के पथ पर पहुँच जाता है, वही मानवात्मा भगवान, परमात्मा या अनन्त ज्ञानादि परम ऐश्वर्य-सम्पन्न ईश्वर बन जाता है।" तीर्थकर अरिहन्त और सामान्य केवली अरिहन्त में समानता __ अरिहन्त, अरहंत, अरुहन्त, अरथान्त आदि पूर्वोक्त जितने भी लक्षण अरिहंतों या अरहन्तों के दिये हैं, वे सामान्य केवली अरिहन्तों में भी घटित होते हैं और तीर्थंकर रूप विशिष्ट अरिहन्तों में भी। 'नमो अरिहंताणं' कहते ही अरिहन्त की भूमिका में जितने भी केवली अरिहन्त हैं वे तथा तीर्थंकर अरिहन्त भी आ जाते हैं। वस्तुतः तीर्थंकर अरिहन्त और दूसरे सामान्य (केवली) अरिहन्तों में आध्यात्मिक १. असेस कम्मक्खएणं निद्दड्ढ-भवांकुरत्ताओ न पुणहे भवंति, जम्मंति, उववज्जंति वा अरुहंता। -महानिशीथसूत्र २. दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुरः। कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवांकुरः॥ __-तत्त्वार्थसूत्र भाष्य कारिका ३. वीर्यस्य के बदले कहीं-कहीं 'रूपस्य' पाठ मिलता है। ४. 'प्रयत्नरय' के बदले कहीं-कहीं 'मोक्षस्य' पाठ मिलता है। ५. (क) 'चिन्तन की मनोभूमि' (उपाध्याय अमर मुनि) से भाव ग्रहण, पृ. ४७-४८ (ख) दशवैकालिकसूत्र, हारिभद्रीय वृत्ति ४/१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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