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________________ * ५४ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * अरिहन्त के अन्य अनेक रूप और स्वरूप 'अरिहन्त' शब्द के स्थान में कतिपय प्राचीन आचार्यों ने अरहंत और अरुहंत पाठान्तर भी स्वीकार किये हैं। उनके विभिन्न संस्कृत रूपान्तर होते हैं। यथाअर्हन्त, अरहोन्तर, अरथान्त, अरहन्त और अरुहन्त आदि। 'अरिहा' शब्द का रूपान्तर अर्हत् और अर्हम्स भी बनता है। इसके अर्थ पर हम आगे विचार करेंगे। पहले हम सर्व सामान्य अरिहन्तों या अरहन्तों के लिए प्रयुक्त शब्दों के अर्थ पर कुछ प्रकाश डालेंगे। __अरहोन्तर का अर्थ है-सर्वज्ञ। 'रह' का अर्थ है-रहस्यपूर्ण (गुप्त) वस्तु। जिनसे कोई भी रहस्य छुपा हुआ नहीं है। अनन्तानन्त जड़ और चेतन पदार्थों को हस्तामलकवत् स्पष्ट रूप से जानते-देखते हैं, वे अरहोन्तर कहलाते हैं। अरथान्त का अर्थ है-परिग्रह और मृत्यु से रहित। 'रथ' शब्द उपलक्षण से परिग्रहमात्र का और 'अन्त' शब्द विनाश या मरण का वाचक है। अतः जो सब प्रकार के परिग्रह से और जन्म-मरण से अतीत हो, वह 'अरथान्त' कहलाता है। .. ___ अरहन्त का एक अर्थ तो पहले लिखा जा चुका है। दो अर्थ और हैं-'रह' धातु देने (त्याग) के अर्थ से सम्बन्धित है। प्रकृष्ट राग और द्वेष के कारणभूत क्रमशः मनोज्ञ-अमनोज्ञ विषयों का सम्पर्क होने पर भी जो अपने वीतरागत्व स्वभाव को नहीं त्यागते, वे अरहन्त कहलाते हैं।' अथवा 'रह' का अर्थ हैआसक्ति। अतः जो मोहनीय कर्म को समूल नष्ट कर देने के कारण रागभाव (आसक्ति, मोह-ममता या मूर्छा) से सर्वथा रहित हो गए हैं, वे अरहन्त कहलाते हैं। 'धवला' के अनुसार-जिन्होंने घातिकर्मों का क्षय करके केवलज्ञान द्वारा समस्त पदार्थों को देख लिया है, वे अरहन्त हैं। _ 'अरुहन्त' का अर्थ है-कर्मबीज जिसने नष्ट कर दिया है, ऐसे कर्ममल से सर्वथा मुक्त मानव, अतः नष्ट किये जिनके कर्म पुनः प्रादुर्भुत नहीं होते, वे 'अरुहन्त' कहलाते हैं। ‘रुह' धातु (क्रिया) प्रादुर्भाव अर्थ में है। कर्मबीज के जल पिछले पृष्ठ का शेष(घ) अरिहननादरिहंता, अशेषदुःख-प्राप्ति-निमित्तत्वादरिर्मोहः। रजोहननाद्वा अरिहंता। ज्ञानदृगावरणानि रजांसीव वस्तु-विषय-बोधा अनुभव-प्रतिबन्धकत्वाद् रजांसि। रहस्याभावादवा अरिहंता। रहस्यमन्तरायः। तस्य शेष घातिन्नितमविनाशाऽविनाभाविनो भ्रष्टबीजवन्निः शक्तीकृताघातिकर्मणोहननादरिहंता।। -धवला १/१/१/१/४२/९ (ङ) मूलाचार, मू. ५०५, ५६१ १. 'अरिहन्त' से भाव ग्रहण, पृ. १५ २. धवला ८/३, ४१/८९/२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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