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________________ * अरिहन्त : आवश्यकता, स्वरूप, प्रकार, अर्हता, प्राप्त्युपाय * ५३ * गया है, किन्तु राग-द्वेष आदि अथवा अष्टविध कर्मरूप अन्तरंग शत्रुओं को जो नष्ट कर डालते हैं, वे अरिहन्त कहलाते हैं। 'आवश्यकनियुक्ति' में कहा गया है"ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्म ही वस्तुतः संसार के सभी जीवों के लिये (भाव) शत्रुसूत्र हैं। उन कर्मरूपी शत्रुओं का नाश करने वाले होने से अरिहन्त, अरिहन्त कहलाते हैं।" एक आचार्य ने दूसरे प्रकार से अरिहन्त का निर्वचन किया है-“इन्द्रिय-विषय, कषाय, वेदना और उपसर्ग, ये (साधक की साधना में बाधक भाव) अरि = शत्रु हैं। इन शत्रुओं के हन्ता (हननकर्ता) होने से अरिहन्त कहलाते हैं।' एक आचार्य ने अरिहन्त क्यों नमस्करणीय हैं, इसे बताते हुए कहा है"राग-द्वेष, कषाय, पाँचों इन्द्रियाँ (इन्द्रिय-विषय), परीषह और उपसर्गों को नमाने = झुकाने = परास्त करने वाले हैं, इसलिए अरिहन्त नमस्कार के योग्य (पात्र) हैं।" 'धवला' में अरिहन्त की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है-“अरि अर्थात् (भाव) शत्रुओं का नाश करने से अरिहन्त संज्ञा प्राप्त होती है। समस्त दुःखों की प्राप्ति का निमित्त कारण होने से 'मोह' को अरि कहते हैं। अथवा रज अर्थात् आवरणभूत कर्मों का नाश करने से 'अरिहन्त' संज्ञा प्राप्त होती है। ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म रज की भाँति वस्तु-विषयक बोध और अनुभव के आवारक (प्रतिबन्धक) होने से रज कहलाते हैं। अथवा रहस्य के अभाव होने से भी अरिहन्त संज्ञा प्राप्त होती है। रहस्य कहते हैं-अन्तराय कर्म को। अन्तराय कर्म का नाश, शेष तीन उपर्युक्त घातिकर्मों के नाश का अविनाभावी है। अर्थात् आत्मा के प्रबल शत्रुरूप चार घातिकर्मों को नष्ट कर देने से वे अरिहन्त कहलाते हैं। अन्तराय कर्म के नाश होने पर शेष चार अघातिकर्म भी भ्रष्ट बीज के समान निःशक्त हो जाते हैं।" 'अरहन्त' के लक्षण : विभिन्न दृष्टियों से __ 'धवला' में अरिहन्त का जो लक्षण दिया गया है, उसी से मिलता-जुलता लक्षण 'मूलाचार' में दिया है, परन्तु मूलाचार में उसको अरिहन्त के बदले अरहन्त संज्ञा दी है। वहाँ ‘अरि' के प्रथमाक्षर 'अ' को तथा रज के प्रथमाक्षर 'र' को लेकर, उसके आगे हनन का वाचक 'हन्त' शब्द जोड़कर अरहंत या अर्हत संज्ञा दी है तथा इसी के पर्यायवाची 'जिन' शब्द का लक्षण किया है-क्रोध, मान, माया और लोभ; इन चार कषायों को जीतने के कारण वे 'जिन' कहलाते हैं तथा कर्म-शत्रुओं तथा जन्म-मरणरूप संसार के नाशक होने के कारण अरहन्त कहलाते हैं।' -आवश्यकनियुक्ति ९१४ १. (क) अट्ठविहंपि य कम्मं, अरिभूयं होइ सव्वजीवाणं । तं कम्ममरिं हंता, अरिहंता तेण वुच्चंति॥ (ख) इंदिय-विसय-कसाए, परिसहे वेयणा उवसग्गे। . एए अरिणो हंता, अरिहंता तेण वुच्चंति॥ (ग) रागद्दोसकसाए इंदियाणिअ पंचवि। ___ परिसह-उवसग्गे नामयंता नमोऽरिहा॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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