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________________ * ४६ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * गया- " अप्पणा सच्चमेसेज्जा । " ( अपनी आत्मा से सत्य-तथ्य को खोजो ।) ‘आचारांग' में स्पष्ट कहा गया - " एगमप्पाणं संपेहाए । " ( एकमात्र आत्मा को देखे ।) इतना संकेत करने पर भी शंका बनी रही कि आत्मा को देखना है, पर वह कैसे देखे ? उसकी क्या विधि है ? कौन-सा उपाय है ?' वस्तुतः हम (अल्पज्ञ छद्मस्थ) अपनी आत्मा को, आत्मा के विशुद्ध स्वरूप. को स्वयं नहीं जानते हैं। यद्यपि आत्मा निरन्तर उपयोगमय ( ज्ञानमय) है, अनुभवयुक्त है, फिर भी हमारे लिए अगम्य बना हुआ है। अपना निजरूप होने पर भी हम उसे जान-देख नहीं पाते हैं । अतः उसे जानने-देखने या समझने के लिए हमें उसके पास जाना होगा, उसका सान्निध्य प्राप्त करना होगा, जो इसे सर्वांगरूप से जानता-देखता और समझता है। वह कौन है ? वह अरिहन्त ही है, जो वीतराग है, केवलज्ञानी है, सर्वज्ञ है, अरिहन्त परमात्मा निजदर्शन को प्राप्त हैं । 'आचारांगसूत्र' इस तथ्य का साक्षी है " एगत्तिगते पिहितच्चे से अभिण्णाय दंसणे संते। एकत्वभावना से जिनका अन्तःकरण भावित हो चुका है, राग-द्वेषरूप या कषायरूप अग्नि को जिन्होंने शान्त कर दिया है अथवा काया (अर्चा) को जिन्होंने संगोपित कर लिया है (आनवों से बचा लिया है), वे दर्शन को प्राप्त हो चुके हैं, वे स्वयं साक्षात् दर्शन हैं, क्योंकि वे “ओए समियदंसणे । " ३ (निजात्मा के ) सम्यग्दर्शन में ओतप्रोत हैं। = निष्कर्ष यह है कि आत्म-दर्शनाकांक्षी को ऐसे अरिहन्त के दर्शन में अपना आत्म-दर्शन करना चाहिए अथवा उनकी दृष्टि से हमें अपने आप को देखना चाहिए। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है "जो जाणादि अरिहंतं, दव्वत्त- गुणत्त-पज्जत्तेहिं । सो जाणादि अप्पाणं, मोहो खलु जादि तस्स लयं ॥ ४ अर्थात् जो द्रव्य, गुण और पर्याय से अरिहंत को जानता है, वह स्वयं के (आत्मा के ) (शुद्ध) स्वरूप को जान लेता है । इस प्रकार आत्म-दर्शन करने वाले व्यक्ति का मोह अवश्य ही नष्ट हो जाता है। १. (क) दशवैकालिक द्वितीय चूलिका (ख) उत्तराध्ययनसूत्र, अ. ६ (ग) आचारांग, श्रु. १, अ. ४, उ. ३, सू. १४१ २. (क) आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ. ९, उ. १, सू. २६४ (ख) 'अरिहन्त' से भाव ग्रहण, पृ. ६ ३. आचाराग, श्रु. १, अ. ६, उ. ५, सू. १९६ ४. प्रवचनसार' (आचार्य कुन्दकुन्द) से भाव ग्रहण Jain Education International . For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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