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________________ * अरिहन्त : आवश्यकता, स्वरूप, रागी-द्वेषी की उपर्युक्त कल्पना की तरह, अरिहन्त परमात्मा के शुद्ध-विशुद्ध राग-द्वेषरहित निर्मल वीतरागस्वरूप की कल्पना की जाय कि वे परोक्ष होते हुए भी प्रत्यक्ष अपने समक्ष विराजमान हैं। ऐसा करने से अपनी चेतना अरिहन्त का आकार ग्रहण कर लेगी। फिर उनकी स्तुति, आराधना, उपासनादि प्रारम्भ कर देने से चेतना उक्त अरिहन्ताकार में घुल-मिल जाएगी, तभी संवेदनशील निजात्मा सहसा जाग्रत हो जाए, प्रसन्न हो जाए तो अरिहन्तभाव से भिन्न कल्पनाओं को बाहर निकालकर एकमात्र आत्मा के मूल शुद्ध-विशुद्ध निर्मल निजरूप ( जोकि अरिहन्तस्वरूप है) में निमग्न हो जाए तो External प्रतिभासित होने वाला वीतरागी अरिहन्त भी Inner हो सकता है । जैसे कल्पना के रागी से रागरंजित होकर जीव राग का अनुभव करता है तथा द्वेष से संयुक्त होकर द्वेष का अनुभव करता है, तो वीतराग अरिहन्त के विशुद्ध निर्मल स्वरूप का स्मरण करके वीतरागत्व का अनुभव क्यों नहीं कर सकता ? प्रकार, अर्हता प्राप्त्युपाय * ४५ * पहले कल्पना से अरिहन्त के विशुद्ध रूप से सम्बन्ध जोड़ते हुए आत्मा ज्यों ही जाग्रत होकर स्व-स्वरूप का अनुभव करती है तब अरिहन्त न तो पर-पदार्थ रहेगा, न ही वह कल्पना रहेगी। मैं स्वयं ही ज्ञानादि से परिपूर्ण अरिहन्त हूँ, इस प्रकार के पूर्वोक्त चतुश्चरणात्मक ध्यानवत् ऐसी अरिहन्तत्व की अनुभूति होगी । उसकी समग्र चेतना स्वयं से जुड़ जाएगी । उठती हुई समत्वानुप्राणित ऊर्जा कर्मबन्ध की जगह : कर्मक्षय और निर्जरा का काम करेगी। विकल्प कल्पनाएँ हट जायेंगी । राग-द्वेष धीरे-धीरे मन्द होकर समाप्त होने की स्थिति भी आ सकती है । इस प्रकार अरिहन्त का ध्यान इन सब बाह्य पदार्थों से मुक्त करा सकता है, एकमात्र वीतरागभाव में लीन कर सकता है। इसके लिए होना चाहिए - अरिहन्त का ध्यान करके उस विशुद्ध External (बाह्य) को निज (शुद्ध आत्मा) के स्वरूप के दर्शन द्वारा उसे Inner (आन्तरिक) .करने का प्रबल पुरुषार्थ !' Jain Education International अरिहन्त-दर्शन ही वस्तुतः आत्म-दर्शन है : क्यों और कैसे ? अरिहन्त-दर्शन ही वस्तुतः आत्म-दर्शन है। दर्शन कहते हैं - जिसके द्वारा देखा जाए उसे। यहाँ प्रश्न उठता है - किसके द्वारा और क्या देखा जाए? इस प्रश्न का उत्तर हमें 'दर्शन' से नहीं मिलता, इसका उत्तर मिलता है - आचारांग, उत्तराध्ययन और दशवैकालिक आदि आगमों तथा कुन्दकुन्दाचार्य आदि आध्यात्मिक दृष्टि-परायण आचार्यों से। 'दशवैकालिक' में कहा गया- “संपिक्खए अप्पगमप्पएणं।" (आत्मा का आत्मा से सम्प्रेक्षण करो।) 'उत्तराध्ययन' में कहा १. 'अरिहन्त' से सारांश ग्रहण, पृ. ६३-६५ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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