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________________ * ४४ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * बाह्य अरिहन्त को आन्तरिक कैसे बनाया जा सकता है ? प्रश्न होता है-अरिहन्त तो प्रत्यक्ष नहीं है, वह बाह्य सजीव पदार्थ (External Object) है, इसे कोई साधक ध्यान द्वारा आन्तरिक (Inner) कैसे बना सकता है? क्योंकि व्यक्ति के चैतन्य के बाहर बहुत-से सजीव-निर्जीव Exteral Objects हैं, अरिहन्त के ध्यान से उन सबसे आत्मा को कैसे मुक्त किया जा सकता है? ___ एक उदाहरण द्वारा इसे समझें-किसी व्यक्ति या पदार्थ के प्रति किसी के मन . में राग या द्वेष का भाव आया। वह व्यक्ति या पदार्थ उसके समक्ष हो या न हो, अथवा उस जड़ पदार्थ में तो उसके प्रति राग-द्वेष कुछ भी नहीं होता, किन्तु उस व्यक्ति के मन में भी उसके प्रति राग या द्वेष हो या न भी हो, फिर भी जब वह व्यक्ति उस बाह्य पदार्थ या व्यक्ति को अपने भीतर स्थापित कर लेता है, तब चेतना उसी आकार को धारण कर लेती है। आकार ग्रहण करते समय और कर लेने के बाद वह उसमें प्रायः इतनी तल्लीन या संलग्न हो जाती है कि उसे अपने अस्तित्व का भान नहीं रहता। वह सभी प्रकार से राग और द्वेष का पात्र बन जाती है। चेतना के किसी बाह्य पात्र या पदार्थ के प्रति रागात्मक या द्वेषात्मक कल्पना करना ही विकल्पजन्य भाव-स्थिति है, इसे ही भावकर्म कहते हैं। वह भावकर्म चेतनरूप है, जो पहले बाह्य संसार था, अब भीतर का संसार हो गया। भीतर का संसार बन जाने पर वह तब तक अत्यन्त विस्तार पाता रहता है, जब तक उस व्यक्ति की चेतना सँभले नहीं। प्रसन्नचन्द्र राजर्षि का ऐसा ही तो हुआ था। व्यक्ति सामने न होने पर भी उसके प्रति उन्हें घृणा, तिरस्कार, क्रोध और द्वेषभाव पैदा हुआ। उस बाह्य काल्पनिक पात्र को उन्होंने भीतर स्थापित कर लिया और मन ही मन शस्त्रास्त्र बनाकर कल्पना से ही उस द्वेषपात्र के साथ घमासान युद्ध छेड़ बैठे। परन्तु जब राजर्षि एकदम सँभले और अपने मन में उस द्वेषभाव तथा भावहिंसा कार्य का तीव्र पश्चात्ताप हुआ। शुद्ध आत्म-द्रव्य में शक्ति-स्फुरण हुआ। उनकी चेतना ने जो पहले द्वेष के परमाणुओं को ग्रहण करके उनको सघन आकाररूप में भीतर स्थापित कर लिया था, योगों के साथ जुटकर कषाय से अनुबद्ध होकर कर्मबन्ध कर लिया था, अब उन्हीं पूर्वबद्ध कर्मों को भेदविज्ञान द्वारा तीव्रता से बाहर निकाल दिया और आत्मा के अनन्त चतुष्टयरूप शुद्ध स्वभाव में लीन हो जाने से उनमें अरिहन्तत्व प्रगट हो गया, वे केवलज्ञानी बन गए।' इसी प्रकार अरिहन्त भी हमारे सामने प्रत्यक्ष न होने से External Object ही हैं, परन्तु अरिहन्त के विधिवत् ध्यान की प्रक्रिया से हम इन्हें Inner बना सकते हैं। १. 'अरिहन्त' से भाव ग्रहण, पृ. ६३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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