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* अरिहन्त: आवश्यकता, स्वरूप, प्रकार, अर्हता प्राप्त्युपाय * ४३ *
अथवा प्रकट करना है। अभी जो बन्द है, कर्मबद्ध है, उसे खोलना है, कर्ममुक्त करना है। अपने ही स्वरूप में स्वयं को अवस्थित होना है। '
अरिहन्त की आराधना अपनी आत्मिक पूर्णता की आराधना : चार चरणों में
अरिहन्त की आराधना का अर्थ है - अपनी पूर्ण आत्मा की आराधना । जब तक अपूर्णता है, तब तक अरिहन्तत्व प्रकट नहीं हो सकता। अरिहन्तभाव या स्वभाव को प्रकट करने के लिए अपूर्णता दूर करनी आवश्यक है। अज्ञानता या अल्पज्ञता एक अपूर्णता है। दर्शन और चारित्र की न्यूनता एक अपूर्णता है, (सांसारिक) सुख-दुःख की अनुभूति एक अपूर्णता है, आत्मिक शक्ति की हीनता एक अपूर्णता है। जब तक ये अपूर्णताएँ हैं, तब तक अरिहन्तत्व का पूर्ण विकास सम्भव नहीं है। ये अपूर्णताएँ अरिहन्त के स्वरूप यानी अपनी आत्मा के अरिहन्तत्वरूप शुद्ध स्वरूप का ध्यान न करने से ही चल रही हैं। इन अपूर्णताओं को दूर करने के लिए अरिहन्तस्वरूप का ध्यान करना आवश्यक है। अरिहन्त कोई व्यक्ति नहीं है यह गुणवाचक शब्द है । अतः 'मैं स्वयं अरिहन्त हूँ' इस प्रकार के स्वरूप का ध्यान निम्नोक्त चार चरणों में करना चाहिए
मैं स्वयं अरिहन्त हूँ, मुझमें अनन्त ज्ञान विद्यमान है। मैं स्वयं अरिहन्त हूँ, मुझमें अनन्त दर्शन विद्यमान है। मैं स्वयं अरिहन्त हूँ, मुझमें अनन्त आत्मिक सुख विद्यमान है।
मैं स्वयं अरिहन्त हूँ, मुझमें अनन्त आत्मिक शक्ति विद्यमान है।
इस प्रकार ज्ञान की पूर्णता का, दर्शन की पूर्णता का, आत्मिक सुख की पूर्णता का और आत्मिक शक्ति की पूर्णता का चार चरणों में ध्यान करने से अपने में अरिहन्त स्वरूप प्रकट होने लगता है।
अरिहन्त का ध्यान अपने आत्म-स्वरूप का अपना ध्यान है
अरिहन्त का ध्यान हमारा अपना ध्यान है, अपने आत्म-स्वरूप का ध्यान है । दूसरे शब्दों में- अरिहन्त का ध्यान अपनी अनुभूति का प्रवेश-पत्र है। वैसे तो व्यक्ति महानिबन्धों, लेखों या शास्त्रों से अथवा सिद्धान्त ग्रन्थों से अरिहन्त को मान लेता . है, परन्तु जान नहीं पाता। इसकी यथार्थता और वास्तविकता ( Reality) को । तथ्य को पा जाना ही सच्चे माने में अरिहन्त का ध्यान है । ३
१. 'अरिहन्त' से भाव ग्रहण, पृ. ५५
२. 'एसो पंच णमोक्कारी' (आचार्य महाप्रज्ञ) से भाव ग्रहण, पृ. २२
३. 'अरिहन्त' से भाव ग्रहण, पृ. ६२
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