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________________ * ४२ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * आराधना करता है, तव उनके प्रभाव से, उनके प्रताप से, उनके या उनके गुणों के सान्निध्य या सम्पर्क से, उनके प्रवचनोक्त आज्ञा-पालन से, उनके आश्रय ग्रहण से, उनके तटस्थ निमित्तत्व से अनायास ही अप्राप्य की प्राप्ति, प्राप्त का संरक्षण एवं आवृत का अनावृत होना हो जाता है; क्योंकि अरिहन्त परमात्मा के मोहनीय कर्म का सर्वथा अभाव होने से उनकी किसी प्रकार की कोई इच्छा या विकल्प नहीं होते। जो भी होता है, सहजभाव से स्वतः होता रहता है। वे किसी भी कार्य के लिए प्रत्यक्ष आज्ञा या प्रेरणादि नहीं देते।' वीतराग परमात्मा अपनी निन्दा-प्रशसा से रुष्ट या तुष्ट नहीं होते वीतराग अरिहन्त परमात्मा अपनी स्तुति-भक्ति करने से यदि प्रसन्न होते हैं या तुष्ट होते हैं, तो उनकी निन्दा करने वालों के प्रति वे अवश्य ही रुष्ट होने चाहिए, परन्तु वीतराग होने से वे न किसी पर रुष्ट होते हैं, न तुष्ट, न नाराज होते हैं, न प्रसन्न और न वे किसी को श्राप देते हैं, न ही वरदान। श्रद्धा-भक्तिपूर्वक निःस्वार्थभाव से इहलौकिक-पारलौकिक कामना-वासना से रहित होकर केवल आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से वीरताग प्रभु की स्तुति, कीर्तन, भजन, पुण्य-स्मरण, आराधन, गुणानुवाद या स्वरूप-चिन्तन आदि करने से आराधक के कर्मों का क्षय, उपशम या क्षयोपशम होता है, कर्मों की निर्जरा होती है, पापकर्मों का क्षय होता है, पुण्य-वृद्धि भी होती है और आत्म-विशुद्धि भी। इन सब आराधनाओं से आराधक को आत्मिक प्रसन्नता प्राप्त होती है। जिस प्रकार ठंड से पीड़ित प्राणी अग्नि के पास बैठते हैं तो उनकी ठंड मिट जाती है, उनको शान्ति और प्रसन्नता प्राप्त होती है, अग्नि उन प्राणियों के प्रति न तो राग करती है और न ही द्वेष और न शीत-पीड़ित लोगों को अपने पास आश्रय लेने के लिए बुलाती है। फिर भी उसके आश्रित जनों को अग्निरूप तटस्थ निमित्त से अभीष्ट फल प्राप्त हो ही जाता है। इसी प्रकार अरिहन्त परमात्मा भी अपनी उपासना, आराधना या स्तुति-भक्ति के लिए अथवा अपना आश्रय लेने के लिए किसी को बुलाते नहीं और न ही अपना आश्रय लेने वाले या स्तुति-भक्ति करने-न करने वालों पर राग या द्वेष करते हैं, न ही प्रसन्नता या नाराजी प्रगट करते हैं, तथापि उनकी पूर्वोक्त प्रकार से उपासना-आराधना करने से, उनका आश्रय लेने से आराधक को उपलब्ध अभीष्ट फल-प्राप्ति होती है, यही उनकी प्रसन्नता समझनी चाहिए। . वस्तुतः अरिहन्तत्व आराधक की अपनी स्थिति है, अपनी ही प्रकृति है, अवस्था है। वह अभी प्रसुप्त या आवृत है अथवा प्रच्छन्न है, उसे जाग्रत, अनावृत १ अरेहन्त' से भाव ग्रहण, पृ. ५४-५५ Jain Education International For Personal & Private Use Only • www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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