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________________ * ३८ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * के लिए उन कर्म (घातिकर्म) रहित वीतराग शुद्ध आत्माओं (अग्हिन्त देवों) को.' आदर्श मानकर उनका स्मरण, ध्यान, गुणगान, भक्ति-स्तुति या उपासना, आराधना आदि विविध अनुष्ठान किये जाते हैं। फिर भी 'अप्पा सो परमप्पा' (आत्मा परमात्मा है) इस भगवदुक्ति के अनुसार साधारण आत्मा से मानव अरिहन्त परमात्मा बन सकता है। इस परम आश्वासन के बावजूद मनुष्य अपनी आत्मा में निहित अनन्त शक्तियों से अपरिचित है, अनजान है। मनुष्य विकसित चेतनाशील है, अपने आप में अनन्त ज्ञान का धनी है, फिर भी अपने आप को अल्पज्ञ या अज्ञानी मानता है। अनन्त दर्शन-सम्पन्न होने पर भी मनुष्य स्वयं को अदर्शनी या अल्पदर्शनी मानता है। अनन्त चारित्र, वीतरागता, समता और अनाकुलता से युक्त होते हुए भी स्वयं को कषाय-नोकषाययुक्त, रागी-द्वेषी तथा व्याकुलता से युक्त, विषमतापूर्ण मानता है। आत्मिक-शक्ति-सम्पन्न होते हुए भी स्वयं को शक्तिहीन तथा कर्मशत्रुओं को परास्त करने एवं परीषहों-संकटों पर विजय प्राप्त करने में अक्षम-असमर्थ मानता है। अरिहन्त की मूक प्रेरणा : अपनी अक्षय शक्तियों को जानो किन्तु अरिहन्त मूकभाव से पुकार-पुकारकर कह रहे हैं अपने आप को जानो, पहचानो, देखो; अपने अंदर सत्य को स्वयं ढूँढ़ो। मेरे अन्दर जो अनन्त चतुष्टय विद्यमान है, वे ही तुम्हारे अंदर हैं। अपने में छिपे हुए आध्यात्मिक वैभव, सम्पदा और शक्ति को अपनी आत्मा से ढूँढ़ो, सम्प्रेक्षण करो। अपरिचय की स्थिति में तुम स्वयं को दरिद्र, दीन-हीन मान रहे हो। अपनी दुःस्थिति और सुस्थिति के तुम स्वयं जिम्मेवार हो। मगर अपने सामने अरिहन्त का आदर्श होते हुए भी व्यक्ति को अपनी अनन्त अखूट सम्पदा और अक्षय-शक्ति का ज्ञान नहीं, किसी को पुस्तकों और अन्य माध्यमों से आत्मा के शुद्ध स्वरूप का, अरिहन्तादि का ज्ञान भी है फिर भी वह अपनी आत्मा को अज्ञानी, अशक्त और मूर्छाग्रस्त, पर-भावों में आसक्त समझता है। वह असीम अनन्त होते हुए भी स्वयं को ससीम और अन्तयुक्त मानता है। उसे अनन्तता की विस्मृति हो गयी है। संसारी आत्मा और परमात्मा में अन्तर और उसके निवारण का उपाय __माना कि व्यवहारनय की दृष्टि से संसारी आत्मा और अरिहन्त परमात्मा में बहुत बड़ा अन्तर है। वह यह है कि संसारी आत्मा कर्मों से युक्त है और अरिहन्त १. 'जैनतत्त्वकलिका' से भाव ग्रहण, पृ. १0८-१०९ २. (क) 'अरिहन्त' (साध्वी डॉ. दिव्यप्रभा जी) से भाव ग्रहण, पृ. ५३ (ख) “एसौ पंच णमोकारो (आचार्य महाप्रज्ञ) से भावांश ग्रहण, पृ. २ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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