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________________ * अरिहन्त : आवश्यकता, स्वरूप, प्रकार, अर्हता, प्राप्त्युपाय * ३७ * तात्पर्य यह है कि चार घनघातिकर्मों को क्षय करने वाले अरिहन्त की आवश्यकता इसलिए है कि आराधक मुमुक्षु जिस आराध्य को या वीतरागता के लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है, उसके आदर्श का कोई प्रतीक अपने समक्ष हो तो उसे शीघ्र ही प्रतीति हो जाती है और साध्य तक पहुँचने का मार्ग कठोर हो, सुख-सुविधा से रहित हो, उसमें अनेक परीषहों और उपसर्गों की सम्भावना हो, फिर भी उसकी रुचि, स्पर्शना, पालना और अनुपालना उस साध्य, लक्ष्य अथवा आराध्य की प्राप्ति के प्रति हो जाती है। अपनी शक्तियों से अपरिचित मनुष्यों को अरिहन्त से प्रेरणा अरिहन्त की आवश्यकता इसलिए भी है कि इससे मुमुक्षु साधक को प्रेरणा मिलती है कि वह अपने में सोये हुए, छिपे हुए अरिहन्तत्व को जगाए। द्रव्यदृष्टि (निश्चयनय की दृष्टि) से देखा जाए तो प्रत्येक आत्मा अरिहन्त परमात्मा के समान है। आराधक में आराध्य (अरिहन्त) के सभी गुण मौजूद हैं, पर हैं वे आवृत, कुण्ठित और सुषुप्त। प्रत्येक आत्मा शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से समान है, उसमें और अरिहंत में कोई भेद नहीं है। सभी जीवों (आत्माओं) का मूल गुण या स्वभाव एक समान है, उनमें कोई मौलिक भिन्नता नहीं है। मूल में प्रत्येक जीव (आत्मा) अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त बलवीर्य आदि शक्तियों से सम्पन्न है। अरिहन्त परमात्मा की आराधनादि करने की क्या आवश्यकता ? प्रश्न होता है-जैनदर्शन के अनुसार जब समस्त आत्माएँ परमात्मा के समान हैं और वे अनन्त ज्ञानादि से प्रकाशमान हैं, फिर उन आत्माओं को, विशेषतः मनुष्यों को अरिहन्त देव को स्मरण करने, उनका ध्यान करने, उनकी भक्ति, उपासना, . • आराधना करने की क्या आवश्यकता है? इसका समाधान यह है कि निश्चयनय अथवा आत्मा के शुद्ध स्वरूप की दृष्टि से तो सभी आत्माएँ अपने शुद्ध रूप में ज्ञानादि से प्रकाशमान हैं, किन्तु उनके आत्म-प्रदेशों पर विभिन्न कर्मों (कर्म-संस्कारों) का न्यूनाधिक रूप में आवरण पड़ा हुआ है, इस कारण उनके ज्ञान-दर्शनादि आच्छादित हो रहे हैं। अतः उन विभिन्न कर्मवर्गणाओं को दूर करने १. तुलना करेंतं धम्म सद्दहामि पत्तियामि रोएमि फासेमि पालेमि अणुपालेमि। -आवश्यकसूत्र में श्रमणसूत्र का पाठ २. यः परमात्मा स एवाहं, योऽहं स परमस्तथा। अहमेव मयाऽऽराध्यो, नान्यः कश्चिदिति स्थितिः॥ ३. अप्पो वि य परमप्पो, कम्मविमुक्को य होइ फुडं। -भावपाहुड १५१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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