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________________ रिहन्त : आवश्यकता, स्वरूप, प्रकार, अर्हता, प्राप्त्युपाय अरिहन्त की आवश्यकता : क्यों और किसलिए ? ___ कर्मविज्ञान के पिछले अध्यायों में आठ प्रकार के कर्मों को दो कुलों में विभक्त करके यह बताया गया था कि चार घातिकर्म आत्मा के निजी गुणों को क्षति पहुँचाते हैं और शेष चार अघातिकर्म भवोपग्राही हैं, शरीर और आयु से सम्बद्ध हैं। घातिकर्मों का क्षय होने के बाद अघातिकर्मों का क्षय अवश्य होता है, वे आत्मा को या आत्म-गुणों को किसी प्रकार से क्षति नहीं पहुंचा सकते। जब तक वर्तमान भव में, वर्तमान में प्राप्त शरीर में रहना है, जितना आयुष्य बांकी है, वहाँ तक ही वे रहते हैं। आयुष्य पूर्ण होने के साथ ही शेष तीन अघातिकर्मों का क्षय हो जाता है। वह व्यक्ति समस्त (अष्टविध) कर्मों से युक्त, सिद्ध-बुद्ध परमात्मा हो जाता है, जिसका स्वरूप हमने 'विदेह मुक्त सिद्ध परमात्मा' शीर्षक निबन्ध में विस्तार से बताया है। साथ ही हमने यह भी बताया था कि चार घातिकर्मों (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय) का आस्रव और बन्ध किन-किन कारणों से होता है तथा उनका संवर और निर्जरण भी किन-किन कारणों-उपायों-साधनों से होता है? इतना सब कुछ आप्तपुरुषों से एवं आप्तपुरुषों द्वारा कथित-रचित आगमों तथा ग्रन्थों से जानने-सुनने के पश्चात् मुमुक्षु आत्मार्थी के मन में सामान्य रूप से श्रद्धा तो उत्पन्न होती है, किन्तु प्रतीति तभी होती है, जब अपने समक्ष घातिकर्म चतुष्टय को क्षय किये हुए कतिपय महान् आत्माओं को आदर्श के रूप में देखता है या उच्चकोटि के साधकों (आचार्यों, उपाध्यायों और श्रमण-श्रमणियों) से सुनता है या उनके द्वारा रचित ग्रन्थों में उनकी उपलब्धियों के विषय में पढ़ता है। वह जान लेता है तथा श्रद्धा-प्रतीति कर लेता है कि चार अघातिकर्मों का क्षय करने की बात मनगढंत नहीं है, मेरे समक्ष जीते-जागते अरिहन्त मौजूद हैं या- उनके पथ पर चलने वाले, अरिहन्तपद के आराधक विद्यमान हैं। मैं भी चाहूँ और पुरुषार्थ करूँ तो अरिहन्त केवलज्ञानी बन सकता हूँ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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