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________________ * अरिहन्त : आवश्यकता, स्वरूप, प्रकार, अर्हता, प्राप्त्युपाय * ३९ * परमात्मा और सिद्ध परमात्मा क्रमशः चार घातिकर्मों तथा आठ ही कर्मों से युक्त हैं। समस्त विकार भाव. विभाव एवं विषमभाव के कारण संसारी आत्मा कर्मों से युक्त है, जबकि अरिहन्त चार घातिकर्मों से तो मुक्त होते ही हैं, शेष चार अघातिकर्मों का भी उनकी आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, वे चार अघातिकर्म भी आयुकर्म का क्षय होने के साथ ही नष्ट हो जाते हैं। अतः मुमुक्षु साधकों के लिए अरिहन्त परम आराध्य हैं, उनके स्वरूप का चिन्तन-मनन, स्मरण करने से तथा उनके ध्यान में लीन होने से, उनके गुणों का स्तवन करने से व्यक्ति अरिहन्त पद को प्राप्त कर सकता है, उनके समान बन सकता है। अतः मुमुक्षु साधक के लिए अरिहन्त एक प्रेरणा दीप हैं, जिनके आलम्बन से वह उस पद को प्राप्त कर सकता है। सर्वकर्ममुक्ति का सक्रिय ज्ञान अरिहन्त के द्वारा पथ-प्रदर्शन से होता है ___ मुमुक्षु साधक जब सर्वकर्ममुक्ति के उपायों को खोजने लगता है। उस समय केवल मोक्ष की परिभाषा जानने से तथा अपनी आत्मा में भी मुक्तात्माओं जैसे अनन्त गुण सन्निहित हैं. ऐसा पढ़ने-सुनने से ज्ञान तो होता है, परन्तु वह अनुभवयुक्त ज्ञान नहीं होता। कर्ममुक्ति का सक्रिय ज्ञान ही अनुभव-सम्पृक्त ज्ञान कहलाता है। सर्वकर्ममुक्ति या घातिकर्मों से मुक्ति का वास्तविक उपाय या पथ तो वही बता सकता है, जिसने यथार्थ मार्ग पर चलकर वीतरागता या मुक्ति की मंजिल पा ली हो। · अरिहन्त ही ऐसे साकार आराध्य हैं या मोक्ष के निकट हैं, जो वीतरागता की मंजिल प्राप्त कर चुके हैं। अरिहंत जैसे पथ-प्रदर्शक के विना मंजिल तो अन्य माध्यमों से जान ली जा सकती है, परन्तु मंजिल की प्राप्ति अरिहंत के पथ-प्रदर्शन विना नहीं हो सकती। शिखर को जानने-देखने मात्र से काम नहीं चलता, उस तक पहुँचने के लिए सही रास्ता बताने वाले भी चाहिए; जिन्होंने मोक्षशिखर का वीतरागतारूपी सही स्टेशन पा लिया है. जहाँ से वे सीधे मोक्षशिखर पर पहुँच सकते हैं, उनके द्वारा बताई गई या मूक प्रेरणा से प्रेरित मोक्ष की सीढ़ियाँ पाने से साधक बिना चक्कर के या इधर-उधर भटके बिना मंजिल (अन्तिम लक्ष्य) तक पहुँच सकता है। १. (क) अप्पणा सच्चमेसेज्जा। . (ख) संपिक्खए अप्पगमप्पएणं। (ग) अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्ठिओ सुप्पट्टिओ। (घ) परमानन्द संयुक्तं निर्विकारं निरामयम्। ध्यानहीना न पश्यन्ति निजदेहे व्यवस्थितम्। -उत्तरा. ६/२ -दशवै. चूलिका २/११ --उत्तरा. २०/३७ -परमानन्द पंचविंशति, गा. १ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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