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* ३४ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
शरीर-कर्मादि छूटने के साथ ही तीन घटनाएँ घटित होती हैं ।
आशय यह है कि सभी कर्म सर्वथा नष्ट हो गए, आत्मा का पुद्गलों के साथ सम्बन्ध सर्वथा छूट गया और कर्मनाश में मदद करने वाले कितने ही
औपशमिकादि भाव भी नष्ट हो गए, ऐसे समय में एक साथ तीन घटनाएँ घटित हुईं-(१) शरीरों का वियोग, (२) सिद्धगति की ओर जीवन का प्रयाण, और (३) लोक की सीमा पर जाकर हुई आत्मा की स्थिरता। शरीर छूटने के बाद मुक्त आत्मा का ऊर्ध्वगमन कैसे और क्यों होता है ?
शरीर छूट जाने के बाद शुद्ध बुद्ध-मुक्त-सिद्ध आत्मा का ऊर्ध्वगमन कैसे होता है ? इसके लिए पद्य में 'पूर्व प्रयोगादि' शब्द का प्रयोग किया गया है। जिसका आशय 'तत्त्वार्थसूत्र' के अनुसार यह है कि पूर्व प्रयोग से, संग के अभावं से, बन्धन के टूट जाने से और जीव (आत्मा) के उस प्रकार के परिणाम से, यानी इन चार कारणों से मुक्त जीव ऊपर सिद्धालय में जाता है। जैसे बाण से तीर छूटते ही . उसे पूर्व वेग मिलता है, वैसे ही आत्मा का शरीर से आत्यन्तिक वियोग होते ही शरीर का पूर्व वेग आत्मा को मिलता है; यह बात तो समझ में आती है, किन्तु वेग मिलने पर भी वेग के कारण आत्मा ऊर्ध्वगमन करती है, अधोगमन या तिर्यग्गमन क्यों नहीं? इसका समाधान यह है कि ऊर्ध्वगमन ही आत्मा का सहज स्वभाव है। वह नीचे या तिरछी जाती है, उसका कारण तो कर्म की प्रबलता है। 'भगवतीसूत्र'' में लेप लगे हुए तुम्बे का दृष्टान्त देकर समझाया है कि जैसे तुम्बे का स्वभाव जल की सतह पर ऊपर आकर तैरना है, किन्तु लेप के कारण तुम्बा ऊर्ध्वगमन स्वभावी होने पर भी नीचे जाता है, फिर लेप के सर्वथा दूर होते ही वह तुरंत ऊपर आ जाता है, इसी प्रकार कर्मसंगी आत्मा और कर्ममुक्त आत्मा के विषय में समझ लेना चाहिए। सर्वकर्ममुक्त सिद्ध आत्मा का ऊर्ध्वगमन कहाँ तक होता है ?
सिद्ध आत्मा का ऊर्ध्वगमन कहाँ तक होता है ? इसे बतलाने के लिए पद्य में कहा गया है-“ऊर्ध्वगमन सिद्धालय प्राप्त सुस्थित जो।"-आत्मा का ऊर्ध्वगमन सिद्धालय तक होता है, आगे नहीं। प्रश्न होता है-सिद्धालय क्या है ? आत्मा की पिछले पृष्ठ का शेष
(ख) अपूर्व अवसर, पद्य १९ (ग) पूर्वप्रयोगादसंगस्याद् बन्धच्छेदात्तथागाति परिणामाच्च तद्गतिः। .
-तत्त्वार्थसूत्र, अ. १0, सू. ६ १. भगवतीसूत्र, स्कन्ध १, सू. २८३
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