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* मोक्ष के निकटवर्ती सोपान * ३३ *
तेरहवें से चौदहवें गुणस्थान की विशेषता तेरहवें गुणस्थान में स्थित आत्मा अपने अत्यन्त उदार और उज्ज्वल स्वरूप से तीनों लोक को वात्सल्यमय लोचनरूप निर्झर से नहलाए तो भी शरीर को लेकर अल्प-लांछन तो रहता ही है, जबकि इस चौदहवें गुणस्थान में तो वह भी दूर होकर आत्मा अपने सम्पूर्ण निष्कलंक, केवल चैतन्यमूर्ति, निरंजन, निराकार और अगुरुलघुत्व पद को बेधड़क प्राप्त कर लेता है।
शेष चार अघातिकर्मों का क्षय हीने के पश्चात् ऊर्ध्वगमन निष्कर्ष यह है कि पूर्वोक्त चारों अघातिकर्मों का भी क्षय होने से इस भूमिका में स्थित आत्मा को अपना नित्य और निर्लेपस्वरूप प्राप्त हो जाता है। फिर तो पूर्ण शुद्ध स्वरूप आत्मा में एक भी परमाणु आश्रय कैसे पा सकता है? अतः इस भूमिका में आत्मा केवल क्रियारहित (अक्रिय) और अडोल (निष्कम्प) बनकर उसे मेरुपर्वत के सर्वोच्च शिखर पर फहराती हुई ध्वजा को लाँघकर धनुष में से छूटे हुए तीर की तरह सीधा अपने शाश्वत धाम की ओर उड़ता और पहुँच जाता है।
शुद्ध सिद्ध आत्मा सिद्धालय के लिए ऊर्ध्वगमन
___ कैसे और किस प्रकार करती है ? इस प्रकार की शाश्वत स्वभावदशा प्राप्त होने के बाद स्वधाम में जाने के लिए आत्मा का प्रस्थान समश्रेणीपूर्वक होता है। अर्थात् अन्तिम औदारिक, तैजस् और कार्मण शरीर अपने-अपने मूल पुद्गल धर्म को पा जाते हैं और आत्मा अपने मूल आत्म-धर्म को पा जाती है, तब गाढ़ क्षण तक स्थित होकर फिर तुरंत ऊर्ध्वगमन कर जाती है। वह कहाँ तक, कैसे उड़कर जाती है ? इस तथ्य को पद्यकार कहते हैं
“पूर्व-प्रयोगादि कारणना . योगथी। ऊर्ध्वगमन सिद्धालय प्राप्त सुस्थित जो॥ • सादि अनन्त-अनन्त समाधि-सुखमां।
अनन्त दर्शन-ज्ञान अनन्त सहित जो॥
अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे ? ॥१९॥" __अर्थात् कर्मों से सर्वथा छुटकारा हो जाने के बाद उनके द्वारा आये हुए पूर्व वेग के कारण शरीर छूटते ही जीव फौरन अपने स्वाभाविक रूप के अनुसार ऊँचा जाकर सिद्धि-स्थान प्राप्त कर लेता है, जिसकी आदि होते हुए भी अन्त नहीं है। ऐसे अनन्त समाधि सुख में अनन्त ज्ञान तथा अनन्त दर्शन सहित आत्मा सर्वथा सर्वदा स्थिर हो जाती है।
१. (क) 'सिद्धि के सोपान' से भाव ग्रहण, पृ. १४४, १४७
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