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________________ * ३२ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * रहती है, फिर भले ही वह सुने या न सुने। राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, वैयक्तिक, पारिवारिक आदि अन्यान्य क्षेत्रों की स्वतंत्रताएँ दी जाएँ तो भी वे पर्याप्त नहीं हैं। इतना ही नहीं, 'यह नहीं, इतनी-सी नहीं', इस प्रकार कहकर वह जीव अपनी असली स्वतंत्रता की भूख प्रकट करता है। यही जीव की जीवन्मुक्ति की निशानी है और आत्म-मुक्ति की तड़फन को प्रगट कराती है। केवली समुद्घात के अलावा अन्य समुद्घातों के समय भी वे आठ रुचक प्रदेश खुले होने से कर्म को आत्मा से सर्वथा पृथक् कर दिया जाता है। अतः पुनः कर्मबद्ध होने का अवकाश ही. नहीं है। इसी तथ्य को स्पष्ट करने के लिए १८वें पद्य में कहा गया है “एक परमाणुमात्रनी मले न स्पर्शना। पूर्ण कलंकरहित अडोल-स्वरूप ' जो॥ शुद्ध निरंजन चैतन्यमूर्ति अनन्यपद। अगुरुलघु अमूर्त सहज पद-रूप जो॥१८॥" __ अर्थात् अब तो इस गुणस्थानवर्ती महापुरुष के पुद्गल के एक भी परमाणु स्पर्श करना बाकी नहीं रहा। यानी आत्मा किसी मिलावट या दाग से रहित सम्पूर्ण स्वरूप हो चुका। इस कारण से आत्मा अष्टविध कर्म से सर्वथा मुक्त हो जाने पर परम विशुद्ध, निरंजन, चैतन्यमूर्ति, बेजोड़, अगुरुलघु अमूर्तरूप अपने सहज , परमात्मपद पर अचल स्थिरता प्राप्त कर लेता है।' एकमात्र आत्मा ही आत्मा होती है सर्वत्र इस अयोगी केवली गुणस्थान में आयुष्य छूटने के अन्तिम क्षणों में श्वासोच्छ्वास की क्रिया भी बंद हो गई। अतः अब एकमात्र आत्मा के सिवाय कोई वस्तु ही नहीं रही। इसलिए पद्य में कहा गया है “एक परमाणु-मात्रनी मले न स्पर्शना।" यह तो स्पष्ट है कि विजातीय पौद्गलिक द्रव्य अपने सजातीय भाईबंधु कर्म के बिना एक क्षण भी टिक नहीं सकता, किन्तु जब सर्वकर्मों से आत्मा मुक्त हो गयी, तब वह पूर्ण शुद्ध हो गया। उसने शुद्ध आत्मत्व की पराकाष्ठा सिद्ध कर ली। अब आत्मा ‘अ, इ, उ, ऋ, लु' इन पाँच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण जितने काल में निष्कम्प हो जाती है। संसार और सिद्धि स्थान, इन दोनों दशाओं के बीच की यह अचल भूमिका बार-बार चिन्तनीय एवं अवधारणीय है। आत्मा यहाँ सर्वांग-सम्पूर्णता प्राप्त कर लेती है। इसमें शुक्लध्यान का समुच्छिन्न-क्रिया-निवृत्ति नामक चतुर्थ पाद होता है। १. (क) अपूर्व अवसर, पद्य १८ (ख) 'सिद्धि के सोपान' से भाव ग्रहण, पृ. १४३-१४६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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