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________________ * मोक्ष के निकटवर्ती सोपान * ३१ * केवली समुद्घात होती है। इस समुद्घात में वह जीव जब अपने असंख्यात प्रदेशरूप अवशिष्ट सभी आत्म-प्रदेशों को विस्तृत करके एक साथ प्रबल रूप से अमुक प्रकार के पुद्गलों को एक ही झटके में उदीरणाकरण द्वारा आकर्षित करके, भोगकर झाड़ने की क्रिया करता है। केवली समुद्घात आयुष्यकर्म के सिवाय शेष तीनों अघातिकर्मों से होता है। उस दरमियान पूर्वोक्त कर्म झड़ जाते हैं, फिर वह महापुरुष अपने विस्तारित आत्म-प्रदेशों को समेट (सिकोड़) कर पुनः चालू स्थिति में आ जाता है। इस समुद्घात द्वारा सारे जगत् को स्पर्श करने का कारण यह सम्भव है कि संसार की जो कर्मरूपी पूँजी उधार ली थी, वह वापस उसी जगत् के चरणों में रखकर भरपाई कर देते हैं। ऐसी स्थिति में सर्वप्रथम वेदनीय, नाम, गोत्र इन तीनों कर्मों की पाँखों को विस्तृत करके पुद्गल-मात्र को स्पर्श करता है, फिर बादर (स्थूल) योगत्रय को क्रमपूर्वक एकदम सूक्ष्म बना डालता है तथा मनोयोग और वचनयोग पर विजय प्राप्त करता है। तथैव सूक्ष्म काययोग पर स्थिर हो जाता है। । सामान्य ध्यान में ध्याता और ध्यान पृथक्-पृथक् होते हैं, परन्तु शुक्लध्यान के तृतीय पाद की यह विशेषता है कि इसमें ध्याता और ध्यान दोनों एकरूप हो जाते हैं। __अन्त में, काया और कर्म-समूह सर्वथा छूट जाते हैं। कर्म सर्वथा छूटे कि • पुद्गलों से सम्बन्ध सहज ही छूटा समझो। क्योंकि कर्म-पुद्गलों का सम्बन्ध आत्मा के साथ था, इसी से कर्म-पुद्गलों का खिंचाव था। वह आकर्षण अब चला गया। अतः इस चौदहवें गुणस्थान में मन, वचन और काया का पूर्ण निरोध . (योग-निरोध) हो जाता है। आत्मा अयोगीकेवली शैलेशी अवस्था में पहुँच जाती है। उस स्थिति में आत्मा पूर्णतया निर्बन्ध, स्वाधीन और पूर्ण अव्यावाध सुख से युक्त हो जाती है। .. ' कर्मों से ही जन्म-मरण होता है, इस दृष्टि से कर्मों के सर्वथा छूट जाने पर जन्म-मरण भी छूट जाते हैं, यह बात चक्षुगम्य भले ही न हो, तर्कगम्य तो है ही। प्रश्न है-कर्म और आत्मा का संयोग-सम्बन्ध हो जाने पर तथा कर्म और आत्मा समुद्घातादि क्रिया में ओतप्रोत होने के कारण मिलने पर आत्मा और कर्म दोनों सदा के लिये अलग कैसे हो सकते हैं ? इसका समाधान यह है-चाहे जैसे संयोगों में, . आत्मा चाहे जैसे संयोगों में तथा जड़ में चाहे जितनी ओतप्रोत हो जाए, तो भी उसके आठ रुचक प्रदेश तो सदा के लिए निर्बन्ध रहते हैं। आठ रुचक प्रदेशों की यह निर्बन्धता ही आत्मा को अपने स्वतंत्र स्वराज्य के मार्ग पर उड़ने की प्रेरणा देती १. (क) अपूर्व अवसर, पद्य १७ (ख) 'सिद्धि के सोपान' से भाव ग्रहण, पृ. १३६-१४१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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