SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * ३० * कर्मविज्ञान : भाग ९ * पन्द्रहवाँ सोपान : सर्वकर्ममुक्त सिद्ध-बुद्ध होने की स्थिति, गति और प्रक्रिया दूसरे गाँव जाते समय प्रीतिपात्र (स्नेही) जनों से विदा लेने की स्थिति तथा परलोक जाते समय (देह छोड़कर) ली जाने वाली विदाई की स्थिति में जितना अन्तर है, उतना ही अन्तर आत्म-हंस परलोक जाते समय समस्त शरीरों को छोड़ता है, उस समय की स्थिति और परमधाम (मोक्ष = सिद्धालय) जाने के समय सदा के लिये समग्र शरीरों को छोड़ता है, उस समय की स्थिति में है। परमधाम गमन की शुभ वेला की स्थिति निराली ही होती है । परन्तु वह निरालापन किस कारण से और क्यों होता है ? इस जिज्ञासा के समाधान के लिए पद्यकार कहते हैं "मन-वचन-काया ने कर्मनी वर्गणा । छूटे ज्यां सकल पुद्गल-स्कन्ध जो ॥ एवं अयोगी गुणस्थानक ज्यां वर्ततुं । महाभाग्य सुखदायक पूर्ण सम्बन्ध जो ॥१७॥” अर्थात् तेरहवें गुणस्थान में रहे हुए सामान्य केवली और तीर्थंकर केवली के आयुष्य के पूर्ण होने के साथ, आयुष्यकर्म तथा शेष तीनों अघातिकर्म (वेदनीय, नाम और गोत्रकर्म भी सिर्फ अन्तर्मुहूर्त्तभर समय में वह शरीर सदा के लिये छूट जाता है, वह अयोगी केवली नाम चौदहवें गुणस्थान की भूमिका में आ जाता है। उस समय उनका उपयोग शुक्लध्यान के तृतीय पाद पर केन्द्रित होता है। उस समय (यानी सिद्धधाम जाने की वेला में) मन, वचन, कांया और कर्म की छोटी-बड़ी तमाम सजातीय ( तत्सम्बन्धित ) सामग्री छूट जाने से पुद्गल - मित्रों के साथ लगाव सर्वथा छूट जाता है। यानी जड़ और चेतन दोनों अपने-अपने असली रूप में आ जाते हैं। ऐसी बिलकुल स्वतंत्र, शुद्ध चेतनात्मक, जड़-चेतन के संयोग से सर्वथारहित चौदहवें गुणस्थान की स्थिति महाभाग्योदययुक्त अव्याबाध सुखदायिनी और पूर्णतया अबन्धक होती है। अयोगीकेवली महापुरुष के चार अघातिकर्म कैसे छूटते हैं ? इस गुणस्थान में स्थित अयोगीकेवली महापुरुष के आयुष्यकर्म अधिक हों, वेदनीय आदि तीन कर्म अल्प हों तो उनके बराबर आयुष्यकर्म को करने हेतु पिछले पृष्ठ का शेष (ख) जे जे कारणं बंधनां, तेह बंधनो पंथ । ते कारण छेदकदशा, मोक्ष पंथ भव- अन्त ॥ (ग) मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्। नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only -आ. ९ - गीता ८/९५० www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy