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________________ * मोक्ष के निकटवर्ती सोपान * २५ * संसार (जन्म-मरणादि रूप) के बीज का भी सदा के लिए विनष्ट हो जाता है। ऐसा होने पर भी जहाँ सर्वभावों का ज्ञान और दर्शन शुद्धि के साथ अविच्छिन्न रूप से रहता है। ऐसी अनन्त वीर्य और अनन्त प्रकाश से देदीप्यमान प्रभुता इस भूमिका में प्राप्त हो जाती है। इस गुणस्थान में चार घातिकर्म तो एक साथ ही छूट जाते हैं ऐसी भूमिका प्राप्त होने पर कर्म के ८ भेदों में से आत्मा के सहज आनन्दस्वरूप के विघातक ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय, ये चार घातिकर्म नष्ट हो जाते हैं। आशय यह है कि मोह के सर्वथा नष्ट होते ही मोहनीय कर्म छूट जाता है, वीतरागता की पराकाष्ठा सिद्ध हो जाती है, इसलिए आत्मा और परमात्मा के बीच का अन्तराय दूर हो जाता है, आदृत परम प्रकाश निधि अनादृत हो जाती है। यानी आठों में से चार कर्म तो एक साथ ही छूट जाते हैं। चौदहवाँ सोपान : आत्म-विशुद्धिपूर्वक अनन्त ज्ञान-दर्शन आयुष्यपूर्ण होने तक चार अघातिकर्म की अवशिष्टता स्थूल वैज्ञानिक नियमों की शोध तो आत्म-निर्मलतारहित एक वैज्ञानिक भी कर सकता है। मगर पूर्ण आत्म-विज्ञान तो पूर्ण आत्म-शुद्धता हुए बिना नहीं हो सकता। इसीलिए इस पद्य में 'सह-शुद्धता' शब्द का प्रयोग किया गया है। आत्म-विज्ञान की प्रथम शर्त है-अन्त तक आन्तरिक विशुद्धि। इसकी दूसरी विशेषता है कि ऐसा त्रिकालदर्शी परम पुरुष विश्व-हृदय का ज्ञान और दर्शन एक साथ (युगपत्) प्राप्त करता है, क्योंकि उनके लिए जानना और अनुभव करना; ये दोनों चीजें अलग-अलग नहीं हैं, अपितु एकरूप हैं। इनकी ये दोनों क्रियाएँ इन्द्रियजन्य नहीं हैं, इसलिए काल और क्षेत्र का व्यवहार भी उनके लिये बाधित नहीं हैं। इनका काल और क्षेत्र भी असीम है, इसलिये यहाँ काल के भूत, भविष्य, वर्तमान जैसे भेद हैं ही नहीं। काल अविच्छिन्न धारा-प्रवाह है। मतलब यह है कि जानने-देखने का अर्थ यहाँ भावों को पहचानना है, आत्मसात् करना है-आत्मगम करना-भोगना-उपयोग करना है। इस दृष्टि से पद्य में कहा गया है. “कृतकृत्य प्रभुवीर्य अनन्त प्रकाश जो।" अर्थात् ऐसे जीवन्मुक्त वीतराग अनन्त ज्ञानादि चतुष्टयरूप पुरुष को कृतकृत्यता, प्रभुता, अनन्त वीर्यता, (अनन्त आत्म-शक्ति) और अनन्त प्रकाश १. (क) अपूर्व अवसर, पद्य १५ . (ख) 'सिद्धि के सोपान' के आधार पर, पृ. ११७, ११९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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