SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * २४ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * आदि वाह्य करणों का जड़मूल से परिवर्तन कर डालता है। ये सभी बाह्य करण उसके अधीन हो जाते हैं। क्षीणमोह होने के बाद केवलज्ञान का प्रकटीकरण ___ फिर तत्काल ही पूर्ण आत्म-ज्ञान के असीम भंडार की केवलज्ञानरूपी कुंजी उसके हाथ लग जाती है। समग्र विश्व का मौलिक विज्ञान उसके हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष हो जाता है। जैसे गौतम स्वामी ने प्रशस्तमोह के अन्तिम आवरण को छिन्न-भिन्न कर दिया तो केवलज्ञान उनके अन्तर में तुरंत प्रगट हो गया था, वैसे ही इस साधक की अन्तरात्मा में केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। मोहबीज के जल जाने पर भववृक्ष के उगने की संभावना नहीं जैसे मूल के सूख जाने (नष्ट होने) पर वृक्ष के पैदा होने की सम्भावना नहीं रहती, वैसे ही मोहकर्म के जड़मूल से नष्ट हो जाने पर भविष्य में भववृक्ष के उगने की सम्भावना नहीं रहती, यह दशाश्रुतस्कन्ध में बताया गया है। अज्ञान व मोह के आत्यन्तिक विनाश से आत्मा को अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति - अज्ञान और मोह के आत्यन्तिक अभाव के पश्चात् साधक एक ओर से समता = वीतरागता की पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है और दूसरी ओर से उसमें अव्याबाध केवलज्ञान सर्वांगरूप से प्रकाशित हो उठता है। इसके साथ ही उसे स्वयं ज्योति-सुखधाम निजस्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है। तभी 'निजपद-जिनपद एकता भेदभाव नहीं कांई' यह उक्ति चरितार्थ हो जाती है। इसीलिए अगले पद्य में कहा गया है "चार कर्म घनघाती जे व्यवच्छेद ज्यां। भवना बीज तणो आत्यन्तिक नाश जो॥ सर्वभाव ज्ञाता-द्रष्टा सह . शुद्धता। कृतकृत्य प्रभु वीर्य अनन्त प्रकाश जो॥१५॥" (आत्म-प्रभुता के गाढ़ आलिंगन से वंचित रखने वाले-आत्म-गुण = आवरक या घातक) चार घनघाती कर्मों से इस गुणस्थान में छुटकारा मिल जाता है तथा १. सुक्कमूले जहारुखे सिंचमाणे न रोहइ। एवं कम्मा न रोहंति मोहणिज्जे खयंगए। -दशाश्रुतस्कन्ध, दशा ५, गा. १२२ २. तुलना करें नाणस्स सव्वम्स पगासणाए, अन्नाण-मोहस्स विवज्जणाए। रागस्स दोसस्स उ संखएण, एगंतसोक्खं समुवेइ मोक्खं॥ -उत्तराध्ययन, अ. ३२, गा. २ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy