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* मोक्ष के निकटवर्ती सोपान * २३ *
क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होने की स्थिति और उपलब्धि जैनदृष्टि से अपूर्वकरण के अनुभव के पश्चात् साधक नौवाँ और दसवाँ गुणस्थान पार करके क्षपकश्रेणी पर चढ़ने के लिए बीच में ग्यारहवाँ गुणस्थान छोड़कर सीधे बारहवें गुणस्थान में पहुँच जाता है। वहाँ की कैसी स्थिति होती है ? इसका वर्णन देखिये
“मोह-स्वयम्भूरमण-समुद्रतरी करी। स्थिति त्यां ज्यां क्षीणमोह गुणस्थान जो॥ अन्तसमय त्यां पूर्ण स्वरूप वीतराग थई।
प्रगटाऊँ निज केवलज्ञान निधान जो॥१४॥" अर्थात् मोहरूपी स्वयम्भूरमण समुद्र पार करके उस पार जहाँ क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान की भूमिका है, वहाँ पहुँचकर (अन्तर्मुहर्त समय के) अन्तिम समय में वीतरागभाव की पराकाष्ठा पाकर आत्मा के सम्पूर्ण ज्ञान = केवलज्ञान के खजाने का साक्षात्कार करूँ ! ऐसी तीव्र भावना एवं उपलब्धि इस गुणस्थान में होती है।
चारित्रमाह के महासागर के मंथन से
समता (वीतरागता) सुधा प्राप्त हुई दर्शनमोह का सागर पार करने के बाद अत्यन्त तूफानी, दूसरा चारित्रमोह का महासागर पार करना बाकी था, जिसे पद्यकार ने स्वयम्भूरमणरूपी महासागर की उपमा दी है। जै- लोकसंस्थान वर्णन में स्वयम्भूरमण समुद्र को सबसे अन्तिम महासागर माना गया है, वैसे आन्तरिक मंथन में भी चारित्रमोहरूपी सागर सबसे अन्तिम महासमुद्र है। बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान में पहुँचने वाला साधक इस पर विजय प्राप्त कर लेता है। तव समता-वीतरागता की भूमिका प्राप्त कर लेता है। चारित्रमोहरूपी महासागर (रत्नाकर) के मंधन से समता-सुधा मिली। साथ ही अनुभव के सहचार से आत्म-मंथन करने से जो मन्द-विष था उसे छोड़कर यानी उपशमभाव की श्रेणी छोड़कर क्षायिकभाव की श्रेणी पर जाने से स्वतः ही समता-सुधा प्राप्त हो गई। इस गुणस्थान में साधक के मोहनीय कर्म का सर्वथा अभाव होने से वह पृथक्त्व-विचाररहित यानी एकत्ववितर्क-विचार नामक शुक्लध्यान का द्वितीय पाद पर पहुँच जाता है तथा समता की पराकाष्ठा होने से साधक इसके अन्तिम समय में पूर्ण वीतरागस्वरूप हो जाता है। अतः इस दशा में रहा हुआ साधक मुक्ति की वरमाला प्राप्त कर ही चुका, समझ लो। इस गुणस्थान की स्थिति अन्तर्महुर्त की होने से अन्तिम क्षण में वीतरागता की पराकाष्ठा सिद्ध हो जाती है। साथ ही उसके आन्तरिक करणों का तेज मनबुद्धि प्राण शरीर इन्द्रियाँ
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