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________________ * २६ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * (ज्ञान-दर्शन) उपलब्ध हो जाते हैं। कृतकृत्य इसलिए हो जाता है कि अब साधक को कुछ करना-धरना नहीं होता, करने का कुछ भी विकल्प शेष नहीं रहता। अपने आप होता है। क्योंकि इसमें पूर्ण परमात्मस्वरूप = प्रभु के साथ एकत्व का अनुभव होता है। उनमें वीर्य और प्रकाश दोनों अनन्तता धारण कर लेते हैं। अरविन्द योगी के शब्दों में पूर्णता के मूल छहों तत्त्व प्रगट हो जाते हैं-पूर्ण समता, पूर्ण शक्ति, पूर्ण विज्ञान, पूर्ण आनन्द, पूर्ण भक्ति (पूर्ण आत्म-स्वरूप में अवस्थिति) और पूर्ण भावकर्तृत्व (भावशायक या स्वभावरमण)। आशय यह है, इस भूमिका के साधक का आत्म-ज्ञान भाव को ही स्पर्श करता है। भाव-संवेदन की सृष्टि में जो सरसता होती है, उसमें कभी विरसता नहीं होती। प्रकाश में कभी तिमिर का प्रवेश नहीं होता और न वीर्य में कभी विकार का स्पर्श होता है। ये सभी स्वाभाविक होते हैं, करने-भोगने का विकल्प नहीं रहता। .. कालदृष्टि से सबसे महत्त्वपूर्ण है तेरहवें गुणस्थान की भूमिका यहाँ साधक की भूमिका तेरहवें गुणस्थान तक आ पहुँची है। काल (स्थिति) की दृष्टि से देखें तो चौदह गुणस्थानों में पहला, चौथा, पाँचवाँ, छठा और तेरहवा; ये पाँच गुणस्थान ही महत्त्वपूर्ण हैं, दीर्घ स्थिति वाले हैं, बाकी के सब अन्तर्मुहूर्त से अधिक रायी नहीं हैं। परन्तु इन पाँचों में सबसे मूल्यवान् तो तेरहवाँ गुणस्थान है। इसका कारण ऊपर बताया जा चुका है। यहाँ प्रश्न होता है कि जैसे सभी कर्मों के अधिनायक मोहनीय कर्म के छटने में बात जानमणीयादि शेष तीन घातिकर्म भी छूट जाते हैं, वैसे वेदनीयादि चार कर्म क्या नहीं छूटते? इसका उत्तर यह है कि जैसे हाथ पर अत्यन्त जोर से कसकर दाँधे हुए रस्से के खोल देने पर भी रक्त भरता नहीं, वहाँ तक उसके निशान तो अवश्य बने रहते हैं, तैसे ही मूल बंधन से मोहनीय कर्म के छूट जाने पर उसके निशान बन रहें, यह स्वाभाविक है। किन्तु जैसे रग्या खुन जाने पर गोड़ा नहीं होती, वैसे ही मोहनीय कर्म का बंधन छूटने के बाद (शेष अघातिकमों से) आत्मा गोड़ित नहीं होती। अन्त में तो जैसे रस्से के निशानों के वे दाग भी मिट जाते हैं, वैसे ही घातिकर्मों के दाग रह जाने पर वे दाग भी देरसबेर मिट ही जाते हैं. अर्थात् शेष रहे हुए चार अघातिकर्म (वेदनीय, आयु. नाम और गोत्र) भी आखिरकार जरूर विलीन (नष्ट) हो जाते हैं। इसीलिए १६३ पद्य में कहा गया है “वेदनीयादि चार कर्मवर्ने जहाँ। वली सींदरीवत् आकृतिमात्र जो॥ • ते देहायुष आधीन जेनी स्थिति छ। आयुषपणे मटी ए दैहिक पात्र जो॥१६॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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