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________________ * २० * कर्मविज्ञान : भाग ९ * तेरहवाँ सोपान : क्षपकश्रेणी पर आरोहण, चारित्रमोहविजय निश्चयदृष्टि से चारित्र का अर्थ है-परभाव से लौटकर स्वभाव की ओर गति : करना, स्वभाव में रमण करना। अनवरत शुद्ध आत्मा का ही अनन्य चिन्तन अथवा शुद्ध स्वभाव में स्थिति या गतिमति यथाख्यातचारित्र का स्वरूप है। इस चारित्र की भूमिका तक पहुँचने के लिए दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के साथ साधक को घनघोर युद्ध करना पड़ता है। बीच में मिथ्यात्व और अविरति की कितनी जबर्दस्त खाइयाँ लाँघनी पड़ती हैं ? प्रमाद, विषयासक्ति, कषायादि महाशत्रुओं को जीतने के लिये कितना भगीरथ पुरुषार्थ करना पड़ता है और इस पुरुषार्थ की महायात्रा में प्रतिक्षण वीतरागत्व या परमात्मपदरूप ध्येय के ध्रुव तारे की ओर कितनी सावधानीपूर्वक देखते रहना पड़ता है ? यह वर्णन तीसरे पद्य से लेकर बारहवें पद्य तक में हम देख आए। यहाँ तक तो अविराम आन्तरिक युद्ध की ही बात थी। ऐसे युद्ध में विराम या विश्राम-आराम की अथवा आमोद-प्रमोद की तो बात ही नहीं थी। भक्तिरस में मग्न मीरां की भाषा में-'सूली ऊपर सेज हमारी, सोना किस विध होय ?' वाली बात यहाँ पूरी-पूरी घटित होती थी। इस प्रकार क्षण में हार और क्षण में जीत के हिंडोले में बैठे हुए साधक को उतार-चढ़ाव की अनिश्चित दशा में विश्राम-आराम सूझे भी कैसे? चारित्रमोह पर विजय का स्थायी फल : अपूर्वभावकरण सिद्धि इस प्रकार सतत आन्तरिक युद्ध में विजय प्राप्त करने के पश्चात् विजय के स्थायी फल का वर्णन करते हुए साधक का आत्म-मयूर बोल उठता है “एम पराजय करीने चारित्रमोहनो। आवं त्यां ज्यां करण अपूर्वभाव जो॥ श्रेणी क्षपकतणी करीने आरूढ़ता। अनन्यचिन्तन अतिशय शुद्ध स्वभाव जो॥१३॥" अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार के आन्तरिक धर्मयुद्ध में चारित्रमोह को अन्तिम रूप से पराजित करने के बाद अपूर्वकरण भाव की भूमिका सहज प्राप्त हो जाने पर तथा वहाँ से क्षपकश्रेणी की परिणाम धारा पर क्रमशः चढ़ते-चढ़ते आत्मा को अपने अनन्त शुद्ध स्वभाव के एकनिष्ठ चिन्तन की लोकोत्तर शान्ति मिलती है। आशय यह है कि मिथ्यात्व नष्ट हुए बिना सद्विरति के प्रति रुचि नहीं होती, उसमें प्रमाद भी बीच में बाधा डालता है। अतः प्रमाद नष्ट हुए बिना तथाकथित कषायों से निवृत्त नहीं हुआ जा सकता और कषायों से सर्वथा निवृत्त हुए बिना कर्मों का (आत्मा से) सर्वथा वियोग की सम्भावना नहीं है। कर्मों के आत्यन्तिक वियोग के बिना स्वरूप (स्वभाव) का चन्द्र सोलह कला से खिल नहीं सकता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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