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________________ * मोक्ष के निकटवर्ती सोपान * २१ * इस प्रकार गिरते-पड़ते वह कर्मों से हलका होकर जब साधक दृढ़ अप्रमाद की भूमिका में आता है तभी चारित्रमोह पर विजय प्राप्त कर पाता है। चारित्रमोह को पराजित करने के बाद अपूर्वकरण की सिद्धि मिलती है। अपूर्वभावकरण का सीधा अर्थ यही होता है-जिसे पहले कभी न देखा हो, साक्षात्कार न किया हो, ऐसे मूर्तिमान् सक्रियभाव का दिखाई देना। इसे दार्शनिक भाषा में परम विज्ञान की भूमिका कह सकते हैं, जहाँ आत्मा सिद्धि की भूमिका पर प्रतिष्ठित होती है। जैन तत्त्वज्ञान की परिभाषा के अनुसार इसका गूढ़ अर्थ यों है-स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी, गुणसंक्रमण और अन्य स्थितिबन्ध, इन पाँचों की पहली बार निष्पत्ति (प्राप्ति) वाली जीव की दशा। ___ बारहवें गुणस्थान में पहुंचने से पहले तक के खतरे और सावधानी जैन तत्त्वज्ञान की दृष्टि से यह भूमिका आठवें अनियट्टी बादर (अनिवृत्ति बादर) नामक गुणस्थान की है। इसमें अप्रमत्तता (आत्म-जागृति) सहज होने से कर्मों का तीक्ष्ण आवरण छिन्न हो जाता है और सामान्य (शरीर मौजूद होने से रहने वाले) आवरण के उस पार रहे हुए आत्मा के ओजस्वी रूप का साक्षात्कार होता है। .. परन्तु इतनी दूर जा चुकने के बाद भी एक विचित्र घटना घटित होती है। वह यह कि सातवें से लेकर बारहवें गुणस्थान में पहुँचने से पहले तक की सभी भूमिकाएँ आशा-निराशा के झूले जैसी हैं, क्योंकि इन गुणस्थानों का स्पर्श एक ही जन्म (भवशरीर) में अनेक बार हो जाता है। ये सब भूमिकाएँ (गुणस्थानक) सिर्फ एकाग्रचित्त से उत्पन्न विचारधाराओं का ही रूप हैं। इसीलिए तो इनकी स्थिति एक मुहूर्त के अंदर-अंदर की (अन्तर्मुहूर्त की) होती है। ___ एक ओर उच्चता का आकर्षण साधक को आन्तरिक और बाह्य दोनों प्रकार के करणों से एकदम जोरों से खींचता है, तो दूसरी ओर अध्यासों का प्रभाव उसे अपनी ओर जकड़कर रखता है। जिस साधक ने आमूलाग्र शुद्धि हस्तगत कर ली है, वह अवश्य इन अध्यासों के जाल से अपनी तीव्र शक्ति के जोर से बच निकलता है, अन्यथा ऐसे ही (पूर्ववत) रह जाता है। इसलिए इस गुणस्थानवर्ती उच्च साधक क्षपकश्रेणी पर उत्तरोत्तर आरोहण करके कर्मों (चार घातिकर्मों) का १. (क) अपूर्व अवसर. पद्य १३ (ख) 'सिद्धि के सोपान' के आधार पर, पृ. ९९-१०२ २. आठवें गुणस्थान से दो श्रेणियाँ चलती हैं-उपशम और क्षपक। उपशमश्रेणी वाला अधिक से अधिक ८३ से ११३ गुणस्थान तक आकर नीचे गिर जाता है। क्षपकश्रेणी वाला ८, ९, १0 से सीधे १२वें गुणस्थान में पहुँचकर अन्तर्मुहूर्त तक स्थित रहकर १३३ गुणस्थान में पहुँच जाता है। -सं. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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