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________________ * १८ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * ___ जीने के लिए आहार लेना औषधरूप है, वह भोजन नहीं है। ऐसी स्वाभाविक दशा प्राप्त होने के लिए स्थूल और सूक्ष्म, आन्तरिक और बाह्य दोनों प्रकार के तप का मेल अनायास हो जाता है। कायिक उपवास से शरीर खूब हलका और स्फूर्तिमान हो जाता है और वाणी के उपवास से मन को प्रोत्साहन मिलता है। भगवान महावीर की समौन बाह्याभ्यन्तर तपस्या इस तथ्य का जीता-जागता उदाहरण है। जैसे कलाकार की आत्मा अपनी ललितकला में तन्मयता के गाढ़ क्षणों में देहाध्यास भूल जाती है, वैसे ही मुक्ति के अभ्यास में ओतप्रोत साधक की आत्मा कई दिवसों तक स्वाभाविक रूप से आहार लेना भूल जाय, यह समझ में न आने जैसी बात नहीं है। ऐसी स्थिति में उक्त साधक के लिए आहार औषधरूप होने से, वह स्वाद के लिए नहीं, किन्तु सिर्फ जीवनी-शक्ति को टिकाने के लिए ही. ले, तो भी उसकी गणना दीर्घ तपस्वी में हो, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। यहाँ तक कामनाविजय की बात हुई। सिद्धियों के प्रलोभन पर विजय : वासनाविजय का महत्त्वपूर्ण अंग ___ अप्सरा-सी सौन्दर्यमूर्ति ललना का संयोग और कामोत्तेजक भोगविलास के प्रसंग में यौवनवय में कामविजेता योगी भी अणिमा आदि सिद्धियों के प्रलोभन में हार खा जाता है। समतायोगी रजकण और वैमानिक देव की ऋद्धि दोनों को समान पुद्गल माने इसी दृष्टि से इतनी उच्च भूमिका पर पहुँचे हुए साधक के लिए कहा गया "रजकण के ऋद्धि वैमानिक देवनी। सर्वे मान्यां पुद्गल एक स्वभाव जो॥" अर्थात् चाहे रजकण हो अथवा वैमानिक देव की ऋद्धि हो, परन्तु इस प्रकार के महानिर्ग्रन्थ के लिए तो दोनों एक सरीखे पुद्गल हैं और सभी पुद्गलों का स्वभाव भी एक सरीखा है। १. (क) विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः। रसवर्ज, रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥ -भगवदगीता (ख) मनुष्य जब तक जीभ के रसों को जीते नहीं, वहाँ तक ब्रह्मचर्य का पालन अतिकठिन -व्रतविचार (म. गांधी जी), पृ. ९१ (ग) जरा-सा भी स्वाद का विचार आया कि शरीर भ्रष्ट हुआ और तप की आवश्यकता पड़ी। -वही, पृ. २५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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