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________________ * मोक्ष के निकटवर्ती सोपान * १७ * “सरस अन्ने नहि मनने प्रसन्नभाव जो।'' अर्थात् मनोज्ञ (मनपसंद) भोजन देखते ही जीभ में पानी छूटने लगे और उसे झटपट ग्रहण करने की आतुरता बढ़े, ऐसी सर्वसामान्य घटना सब पर, कम से कम समतायोगी साधक पर लागू होना सम्भव नहीं है। किसी भव्य आदर्श में तल्लीन चित्त को तथा इन्द्रियों को होने वाले स्थूल स्पर्श या स्वादपटुता के भावावेश का स्पर्श नहीं भी होता।' फिर भी इन्द्रियों, मन, बुद्धि, चित्त आदि से पूर्ण वीतरागता-प्राप्त न हो, तब तक साधक को पूर्ण सावधान, जागरूक और अप्रमत्त रहने की आवश्यकता है। इन्द्रियाँ अपनी प्रचलित आदतों के कारण मन पर गहन कुसंस्कार डाले बिना नहीं रहतीं। इसलिए ऐसे में या तो मन साधक की आत्मा को बलात् उसमें खींच ले जाता है या फिर अज्ञात मन में पड़े हुए पूर्व संस्कारवश 'अहा ! आज तो मजा आ गया !' इस प्रकार के अव्यत्त कुसंस्कार उस साधक पर छोड़ जाता है। स्वादविजय : कामविजय और कामनाविजय का महत्त्वपूर्ण अंग 'भगवद्गीता' में बताया गया है कि निराहारी शरीरधारी के विषय छूट जाते हैं, किन्तु उन विषयों का रस (आस्वाद) रह जाता है। स्वाद पर पूर्ण विजय प्राप्त न की जाय, वहाँ तक वासनाविजय की सिद्धि मृगतृष्णा-सी ही रहती है। जैसे मानसिक विकार इन्द्रियविकारों को बढ़ाते हैं, वैसे इन्द्रियविकार भी मनोविकार में वृद्धि करते हैं। इसीलिए स्वादिष्ट अन्न (भोजन) मिलने पर भी चित्त की समता नष्ट न होने देना सर्वसामान्य भूमिका नहीं, अपितु असाधारण भूमिका है। इस भूमिका में प्रसन्नता का भाव सहज होता है, किन्तु वह प्रसन्नभाव स्वादिष्ट आहार मिलने से हुआ, ऐसा नहीं माना जाता। स्वादिष्ट भोजन प्राप्त करने की लालसा न होते हुए भी सहजभाव से साधक को मिले तो वह स्वादिष्ट भोजन साधक को मोहित न कर सके, यही सहज प्रसन्नभाव का आशय है। क्योंकि आज जिसे सरस · भोजन मुग्ध कर सकता है, कल उसे नीरस भोजन नाराज भी कर सकता है। यहाँ प्रश्न होता है कि आहार जैसी मामूली वस्तु पर से विकास-अविकास का नाम निकालने का यहाँ क्यों कहा गया? इसका समाधान यह है कि जननेन्द्रिय के स्थूल विकारों की गहरी जड़ें राजसिक-तामसिक आहार में ही हैं। रक्षण, पोषण और संवर्द्धन में आहार का स्थान पहला है। जब तक साधक इन्द्रियगम्य या बुद्धिगम्य जगत् में विचरण करता है, तब तक वही (पूर्वाक्त) आहार उसे अपने स्वाद से लुब्ध कर सकता है। किन्तु जब साधक वैराग्ययुक्त अभ्यास में इन्द्रियगम्य और बुद्धिगम्य जगत् स ऊपर उठकर भावनामय जगत् में विचरण करता है, तभी रस और स्वाद की वास्तविकता का ख्याल आता है। १. जितं सर्वं रसे जिते। -श्रीमद्भागवत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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