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________________ * १२ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * स्थलों में निवास करना खासतौर से पसन्द करे, जहाँ रहने से दया और निर्भयता का अभ्यास और विकास हो सके।' निर्भयता की सिद्धि के लिए : अडोल आसन और . मन में अक्षोभ आवश्यक ऐसी निर्भयता और दया सिर्फ बोलने मात्र से नहीं आ जाती, अथवा पर्वतों पर पर्यटन या निवास करने मात्र से नहीं आ जाती। पर्वत-निवासी भी डरपोक हो सकते हैं और सिंहादि का संयोग बार-बार मिले तो वे बाहर से भले ही निडर होने की डींग मारें, अन्तर से भय नहीं जाता, बल्कि ऐसे घोर जंगल या पर्वत पर रहने वाले जंगली लोग तीरकमान लेकर उन प्राणियों को निर्दयतापूर्वक मार भी डालते. हैं। अतः घोर वन में या पर्वत पर रहने मात्र से निर्भयता और दया नहीं आ सकती। अतः उक्त महासाधक के लिए जिस सर्वांगी निर्भयता और दया की जरूरत है, वह कैसे आ सकती है? इसके लिए कहा गया है __ “अडोल आसन ने मनमां नहि क्षोभता।" -अडोल आसन और मन में अक्षोभता, ये दोनों निर्भयता और दया के अभ्यास के लिए उक्त साधक में होने जरूरी हैं। ‘अडोल आसन' यहाँ दो प्रकार से विहित है। एक तो यह कि वह साधक आसन मारकर ध्यानस्थ दशा में बैठा हो, वहाँ कोई बाघ, चीता या सिंह आदि आयें, इतना ही नहीं, जैसे मनुष्य अपने पूर्व-अध्यास (भय के पूर्व संस्कार) के कारण इन वन्य क्रूर प्राणियों को अपने शत्रु मानता है, वैसे ही ये भी मनुष्य से अपनी मौत का डर होने से या प्राण बचाने हेतु ध्यानस्थ साधक को अपना शत्रु मानकर हैरान करने, उस पर झपटने, प्रहार करने या काटने का प्रयत्न करें अथवा यों ही बैठा हुआ हो तो भी सामने आकर या पास में आकर गर्जना करें, उछल-कूद मचायें, पंजा उठायें, या काटने को तैयार हों, तो भी ऐसा उच्च साधक जरा भी विचलित या भयभीत न होकर अपने आसन पर डटा रहे, घबराकर या डरकर वहाँ से भागकर अन्यत्र न जाये, दूसरा आश्रय न १. (क) 'सिद्धि के सोपान' के आधार पर, पृ. ८४-८५ (ख) तुलना करें सुसाणे सुन्नागारे वा. रुक्खमूले व एगओ। अकुक्कुआ निसीएज्जा. न य वित्तासए परं॥ -उत्तराध्ययन २/२० (ग) से भिक्खू परक्कमेज्ज वा, चिट्ठज्ज वा, णिसीएज्ज वा, तुयट्टेज्ज वा. सुसाणंसि वा। सुन्नागारेसि वा, गिरिगुहंसि वा. रुक्खमूलंसि वा, कुंभारायतणंसि वा॥ -आचारांग, श्रु. १, अ. ८, उ. २, सू. ७११ (घ) सुसाणे सुन्नगारे वा रुक्खमूले वि एगदा वासो। -वही, श्रु. १, अ. ९, उ. २, गा. ३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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