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* मोक्ष के निकटवर्ती सोपान' * १३ *
ले, निर्भयतापूर्वक वहाँ अडोल रहे, तथैव ऐसी स्थिति में न तो उनका प्रतीकार करे और न उन्हें हटाने के लिए दूसरों की सहायता चाहे, उस समय उसके मन में यह पक्का विश्वास होना चाहिए कि मैं जिसे मारना, सताना या हैरान करना नहीं चाहता, वह मुझे मारने, सताने या हैरान करने का प्रयत्न प्रायः नहीं करता। इसके लिए वर्तमान युग का ज्वलन्त उदाहरण है-रयण महर्षि का; जिन्होंने एक ऐसी ही गुफा में चिरकाल तक ऐसे क्रूर विषैले रेंगने वाले सर्प आदि प्राणियों के साथ निवास करके यह सिद्ध कर दिया था कि अपने मन में उन प्राणियों के प्रति आत्मीयता, वत्सलता, दयाभाव एवं निर्भयता हो तो वे प्राणी जरा भी हानि नहीं पहुँचाते।" भगवान महावीर और चण्डकौशिक सर्प के दृश्य पर भी चिन्तन किया जा सकता है। मतलब यह है, ऐसे क्रूर प्राणियों की हरकतों से, फुकार से, दहाड़ से या पास आने से छाती न धड़के, हृदय में जरा भी भय का संचार न हो या जोर से आक्रन्दन न करे, तो समझ लो, साधक अडोल आसन पर है। अन्यथा, ऐसे क्रूर प्राणियों की आवाजभर से छाती झड़कने लगे, भय से कँपकँपी छूटने लगे तो समझो कि अभी तक आसन अडोल नहीं हुआ।'
पद्यकार कहते हैं-सिर्फ आसन अडोल रहे या प्रतीकारात्मक व्यवहार न हो, इतना ही बस नहीं है, बल्कि ऐसे साधक के मन में इस निमित्त से जरा-सा क्षोभ तक नहीं आना चाहिए। अर्थात् विरोधात्मक विचार तक उसके मन में स्फुरित नहीं होना चाहिए। आत्म-सामर्थ्य के उच्च मार्ग या सोपान पर बढ़ते या चढ़ते हुए उक्त महासाधक के चित्त की विचारधारा (जोकि आत्मीयता या वत्सलता से परिपूर्ण है) का प्रवाह कहीं न रुककर अस्खलित रूप से बहता रहना चाहिए। निर्भयता की सिद्धि के लिए : उन वन्य प्राणियों का समागम
परम मित्र का समागम जानो ऐसी विकट परिस्थिति में आसन जरा भी चलायमान न हो, मन में जरा भी क्षोभ पैदा न हो और सामर्थ्य अन्त तक निर्भयतापूर्वक टिका रहे, यह तो परम क्षमता या उत्कृष्ट सहनशीलता अथवा क्षमा का स्वरूप हुआ। इसका दूसरा पहलू यह है कि ऐसे वन्य खूख्वार और क्रूर प्राणियों का या प्रकृति की क्रूरता का सम्पर्क या संस्पर्श होने पर साधक की आत्म-निष्ठा, नैतिक हिम्मत और निर्भयता के साथ विधेयात्मक रूप में खुलकर प्रगट होनी चाहिए। अर्थात् उस समय साधक
१. (क) 'सिद्धि के सोपान' के आधार पर, पृ. ८६-८७ .. (ख) तुलना करें
संकाभीओ न गच्छेज्जा. उद्वित्ता अन्नमासणं।। -उत्तरा., अ. २, गा. २१ (ग) विकराल वाघ या क्रूर प्राणी दिखाई दे तो घबराकर या डरकर दूसरा आश्रय न लेना, किन्तु निर्भयता से वहीं विहरण करना।
-आचारांग २/१२/३/१३
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