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________________ * ८ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * उन जीवों की अपने-अपने कर्मानुसार पृथक्-पृथक् सत्ता (अस्तित्व) है, और वे .. अनन्त हैं। संसारी जीवों के कर्माधीन होने से उनमें कर्मों के कारण बहुरूपता है, थी और रहेगी, क्योंकि संसार का यह स्वभाव है। इसलिए संसार की बहुरूपता में एकरूपता (स्वरूपदृष्टि, आत्मैकत्वदृष्टि, स्व-स्वरूपतुल्यता) को कायम टिकाये रखने के लिए आत्मैकत्वदृष्टि परिपक्व, अभ्यस्त और दृढ़ हो जानी चाहिए, ताकि संसारी जीव बाहर से विभिन्न रूपों में दिखाई दें तो भी समतायोगी साधक को स्वरूप दृष्टि से उनमें शुद्ध आत्मा की प्रतीति हो, उन-उन प्राणियों के प्रति आत्मौपम्यभाव तथा : सर्वभूतों में समत्वदर्शन हो, तभी समत्वयोगी साधक अन्य जीवों द्वारा उपस्थित की गई प्रतिकूल परिस्थिति में निर्भयतापूर्वक साम्यभाव में अविचल रह सकता है। आत्मा द्वारा परमात्मभाव की या समत्वयोग की परम सिद्धि की साधना के लिए पूर्व-पद्य में सूक्ष्म कषायों पर विजय प्राप्त करने तथा विविध व्यक्तियों, संयोगों और परिस्थितियों या अवस्थाओं में निष्कम्प समताभाव में दृढ़ रहने के विविध उपायों का तथा सावधानी रखने का निर्देश किया गया है। __ अब आगे के पद्य में विविध प्राणियों, परिस्थितियों, संयोगों आदि से वास्ता पड़ने पर साधक अपने समतायोग (सामायिक) में कैसे अविचल रहे ? उस अवसर पर साधक में निर्भयता, नैतिक साहस, वत्सलता एवं आत्म-तुल्यता कैसी और कितनी होनी चाहिए? इसका दिग्दर्शन कराया जा रहा है "एकाकी विचरतो वली स्मशानमां, वली पर्वतमां वाघ-सिंह-संयोग जो] अडोल आसनने मनमां नहि क्षोभता, परममित्रनो जाणे पाम्या योग जो॥११॥ अर्थात् अकेले और वह भी श्मशान जैसे भयंकर सूनसान स्थान में विचरण करना, जहाँ बाघ, सिंह, चीते आदि क्रूर जानवरों के संयोग (समागम) की बारम्बार सम्भावना हो, वैसे पर्वत, गुफा आदि स्थानों में रहकर साधना करना। उस दौरान ऐसे भयंकर जानवर पास में आयें तो भी अडोल आसन से बैठे रहना। इतना ही नहीं, ऐसे भयावह प्रसंगों में मन में जरा-सा भी क्षोभ न आने देना और मानो परम स्नेही मित्र का मिलाप हुआ हो, ऐसी प्रेमभरी स्थिति का अनुभव करना ! ऐसी अपूर्व स्थिति प्राप्त करना इस भूमिका में अनिवार्य है। एकाकी विचरण : क्यों, कब और कैसे ? इस पद्य के प्रारम्भ में निर्भयता, समता, नैतिक साहस की वृद्धि एवं परिपक्वता के लिए एककी विचरण शब्दों का प्रयोग किया गया है। एकाकी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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