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________________ * मोक्ष के निकटवर्ती सोपान * ९ * विचरण में एकाकी शब्द का अर्थ यहाँ न तो अलग-थलग होना है और न ही स्वच्छन्दता या मन की तरंगों के आवेश में आकर अकेले भटकते फिरने के अर्थ में है। 'एकाकी' का अर्थ भाव से राग-द्वेषरहित व विभावरहित होना है। आत्मा के सम्बन्ध में एकत्वभाव से चिन्तन करना है। जैसा कि अमितगतिसूरि ने कहा है“आत्म-बाह्य पदार्थ (परभाव या विभाव) कुछ भी मेरे नहीं हैं और न मैं भी कदापि उन पदार्थों या व्यक्तियों का हूँ। इस प्रकार विचार (निश्चय) करके आत्म-बाह्य समस्त पदार्थों का परित्याग कर। हे भद्र ! इससे मुक्ति के लिए तू सदैव स्वस्थ (आत्मस्थ) होकर विचरण कर।" अतः साधक बाह्यरूप से धर्म-संघ से सम्बद्ध होते हुए भी अन्तर से उससे स्वयं को पृथक् (अकेला) समझेगा। यद्यपि सहायप्रत्याख्यान करके आगम प्रतिपादित अष्ट गुणों से युक्त कोई साधक अकेला विचरण करना चाहता है, तो वह शास्त्रविहित है। परन्तु वह अकेला विचरण करता हुआ भी “मित्ती मे सव्व भूएसु, वेरं मझं न केणइ।"-मेरी सब जीवों के साथ मैत्री है, किसी के साथ भी मेरा वैर-विरोध (शत्रुता) नहीं है। इस सूत्र को कोई साधक सांगोपांग जीवन में उतार लेता है तो ठीक, किन्तु इसके विपरीत यदि कोई साधक स्वच्छन्दता, सनक और आवेश में आकर अकेले फिरना पसन्द करता है, तो अपनी कामना के जाल में ऐसा फँस जायेगा कि भूल होने पर न तो वह किसी विश्वस्त और एकान्त हितैषी की बात मानेगा और न भूल सुधारेगा। ___ एकाकी विचरण का रहस्यार्थ : उदात्त ध्येय-सिद्धि दूसरी बात-धर्म-संघ से अलग होकर अकेले केवल अपने निपट स्वार्थ को लेकर घूमता है या घूमना चाहता है, वह ‘मेरी सर्वजीवों के साथ मैत्री है', इस उद्देश्य से सर्वप्राणियों के साथ मैत्री की कड़ी जोड़ नहीं सकता और न ही समस्त जीवों के साथ अद्वैतता, अभिन्नता या आत्मीयता की साधना कर सकता है। १. न सन्ति बाह्या मम केचनार्था, भवामि तेषां न कदाचनाऽहम्। इत्थं विनिश्चित्य विमुच्य बाह्यं, स्वस्थसदा त्वं भव भद्र ! मुक्त्यै ॥ -सामायिक पाठ, श्लो. २४ २. सहाय-पच्चक्खाणे णं एगीभावं जणयइ। एगीभावभूए वि य णं जीवे एगत्तं भावेमाणे अप्पसद्दे अप्पझंझे अप्पकलहे, अप्पकसाए अप्पतुमंतुमे संजमबहुले संवरबहुले समाहिए यावि भवइ। -उत्तराध्ययन, अ. २९, सू. ३९ ३. एकलविहार प्रतिमाधारी साधु में ८ गुण होने अनिवार्य हैं-(१) जिनोक्त तत्त्व एवं आचार के . प्रति दृढ़ श्रद्धालु, (२) सत्यवादी, (३) मेधावी (मर्यादा में रहने वाला), (४) बहुश्रुत, (५) शक्तिमान, (६) अल्पोपकरण वाला अथवा कलहरहित, (७) धृतिमान, और (८) वीर्यसम्पन्न (परम उत्साही)। -स्थानांग, स्था. ८, सू. ५९४ ४. देखें-आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ. ५, उ. ४, सू. १ में अव्यक्त साधु के लिए एकाकी विचरण में दोष का प्रतिपादन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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