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________________ * मोक्ष के निकटवर्ती सोपान * ७ * ठोस सत्य निहित है। क्योंकि कषाय से मुक्ति के बाद स्वेच्छा से कुछ करने जैसा नहीं रहता।' परन्तु जहाँ अभी तक इस किनारे नौका पहुँची नहीं हो, वहाँ तो अन्तर्यामी के चरणों में प्रार्थना की जाती है-"प्रभो ! संसारदशा रहे या मोक्षदशा प्राप्त हो, दोनों अवस्थाओं में मेरा शुद्ध स्वभाव चालू रहे।" इसका तात्पर्य है-“मैं शुद्ध आत्म-भाव में रहूँ।" क्योंकि भवसागर का किनारा दिखाई दे रहा हो, उस समय अगर थोड़ी-सी भी गफलत हो जाये या चूक हो जाये, तो किनारे के पास आई हुई नौका डूब सकती है। अतः ऐसे समय तो पहले से ज्यादा सावधान रहने की आवश्यकता होती है। दीर्घकाल तक उपवास करना फिर भी सरल है, किन्तु पारणे के समय जो पदार्थ थाली (या पात्र) में आये, उस समय धैर्य रखना और उतावली करके भोजन की मात्रा और पथ्य-अपथ्य का ध्यान न रखकर पेट में ह्सते जाने पर ब्रेक लगाना तथा उस समय मन को त्याग-वैराग्यपूर्वक यथालाभ अतीव सात्त्विक अल्पाहार में लगाना दुष्कर-अतिदुष्कर है। इसीलिए कहा गया है कि जीवन तराजू के भव और मोक्ष, दोनों पलड़ों का मन में समतोल रहे, दोनों पलड़े समान रहें, इस प्रकार का शुद्ध स्वभाव या समभाव रहे। तात्पर्य यह है कि भवसागर में तैरते हुए, जब किनारा दिखाई देने लगे; तब न तो किनारे जल्दी पहुँच जाने का मोह पैदा हो और न तरने में शिथिलता, अरुचि या अनुत्साह आये। अर्थात् ऐसे समय में सिर्फ अनासक्तिमय आत्म-भाव में ही तल्लीन रहा जाये। समत्व-साधना की सिद्धि का यह चतुर्थ चिह्न है। एकादशम सोपान : समता की सिद्धि के लिए पूर्ण निर्भयता का अभ्यास आवश्यक .. निर्भयता के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचने के एक क्षण पूर्व तक भय का अंकुर रहा हुआ है। और भय है या भय निर्मूल नहीं हुआ है, वहाँ तक भय के निमित्तभूत हथियारों के खिलाफ निर्भयता की ढाल हाथ में थामे रखनी ही होगी। तभी उच्चकोटि का साधक समता की पराकाष्ठा या सिद्धि तक पहुँच सकता है। निर्भयता की सिद्धि के लिए सर्वात्मभाव, सर्वभूतात्मभाव अथवा सर्वप्राणियों में शुद्ध आत्मा का प्रेक्षण आवश्यक है। यद्यपि 'वेदान्तदर्शन' में उक्त ‘एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म' के समान 'जैनदर्शन' (जैनागम) में ‘एगे आया' से प्रथम दृष्टिपात में यही आभास होता है कि सारे संसार में एक ही ब्रह्म (आत्मा) है। किन्तु ‘वेदान्तदर्शन' के अनुसार-“जगत् में एक ही ब्रह्म (परम आत्मा) है, जीव उसी के विविध अंशरूप हैं", ऐसा जैनदर्शन नहीं मानता। सारे संसार के जीवों की आत्मा स्वरूप की दृष्टि से एक, (समान) है, किन्तु १. जीवियास-मरणभय-विप्पमुक्के। -आवश्यकसूत्र में संलेखना पाठ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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