SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * मोक्ष के निकटवर्ती सोपान * ३ * झरने अस्खलित रूप से बहने लगते हैं। परिणामस्वरूप सर्वत्र चैतन्य का देदीप्यमान तेज दृष्टिगोचर होने लगता है। जैसे एक्स-रे (X-Ray) यंत्र की रचना ही ऐसी है, जिससे चमड़ी के पटल के उस पार की चीज भी प्रतिबिम्बित हो जाती है। इसी प्रकार ऐसी दशा में रहे हुए साधक के पारदर्शी अन्तश्चक्षु ऊपर की उपाधिजन्य क्रिया को चीरकर उसके पीछे की मूल शुद्ध आत्मा को देख पाते हैं। इस कारण उसमें जगत् के किसी भी प्राणी की अच्छी या बुरी प्रवृत्ति लेशमात्र भी असमता या विषमता पैदा करने में समर्थ नहीं होती। समभाव की पराकाष्ठा पर पहुँची हुई साधकदशा यद्यपि ऐसे वात्सल्यमूर्ति, वीतरागता के अभ्यासी साधक की दृष्टि में, आचार-व्यवहार में जब शत्रुता ही नहीं रहती; तब क्या उसका कोई शत्रु नहीं होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहना है कि ऐसी उच्च दशा प्राप्त होने से पूर्व जो उसका शत्रु या विरोधी हो चुका है, उस समतायोग के उच्च अभ्यासी के सम्बन्ध में यह बात है। यद्यपि उसके स्वयं के अन्तर्हृदय में स्थित निःशत्रुभावना की प्रभाव-किरणें पहले किसी या किन्हीं कारणों से बने हुए शत्रु के हृदय को देर-सबेर अवश्य ही स्पर्श करती हैं। परन्तु जब तक प्रतिपक्षी व्यक्ति पर पूरा असर न पड़ा हो, तब तक ऐसे उच्चकोटि के विश्वबन्धु साधक के प्रति भी उसका व्यवहार शत्रुतापूर्ण रहे, यह सम्भव है। किन्तु संकटापन्न स्थिति में भी उसकी सहज समता का आसन डोले नहीं। इतना ही नहीं, बल्कि उस सहज समता के समग्र बल को लेकर उसके प्रति भी मित्रवत् अकृत्रिम व्यवहार रख सके, तभी समझना कि यह दशा समभाव की पराकाष्ठा की है।' भगवान महावीर के जीवन में पूर्ण समदर्शिता की पराकाष्ठा भगवान महावीर की समदर्शिता कितनी पराकाष्ठा पर पहुँच गई थी। शत्रुभाव रखने वाले गोशालक के प्रति और चरण वन्दन करने वाले प्रिय शिष्य गणधर गौतम के प्रति उनकी समता अन्त तक टिकी रही। शिष्यलिप्सा न होते हुए भी शिष्यभाव से गोशालक रहे, इसमें भी भगवान महावीर ने उसका श्रेय देखा, परन्तु बाद में वही गोशालक शिष्य-स्वभाव छोड़कर उनका शत्रु बन जाय और गुरु-कृपा से प्राप्त की हुई तेजोलेश्या की शक्ति का दुरुपयोग करे, वह भी अपने उपकारी गुरु के विरुद्ध तथा अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए परम कृपालु गुरुदेव की प्रतिभा पर धूल उछालने का प्रयत्न करे, निन्दा करे और गुरुदेव की आत्मा को दम्भी सिद्ध करने तक की राक्षसी वृत्ति अपनाए, फिर भी उसके प्रति पूर्ववत् (पहले जैसा ही) भाव टिका रहे, व्यवहार या वाणी से ही नहीं, मन से भी उसका अहित । १. 'सिद्धि के सोपान' के आधार पर, पृ. ७५-७६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy