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________________ *२* कर्मविज्ञान : भाग ९ * विशुद्ध समता द्वारा सिद्धि के तट पर पहुँची हुई साधना नौका इस पद्य के चारों चरण समदर्शिता एवं समता की पराकाष्ठा को सूचित करते हैं। इस भूमिका का साधक अभी संसारदशा में है। सिद्ध अवस्था में नहीं पहुंचा है, वहाँ तक उसे मोक्ष (सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष) का अनुभव नहीं है, किन्तु स्वयं के शुद्ध स्वभाव का (सतत शुद्ध स्वभावलक्षी) है। इसलिए वह इसे अनुभव द्वारा ही ग्रहण कर सकता है। इसी प्रकार विभिन्न पहलुओं से जीवन की विभिन्न परिस्थितियों, संयोगों, व्यक्तियों, क्षेत्रों आदि से वास्ता पड़ने पर समभाव का. दृढ़तापूर्वक परिचय दे, तभी वीतरागता के सोपानों यानी समता की पराकाष्ठा वाली सीढ़ियों पर आरोहण कर पाता है। ___ चूँकि अब साधक मोहसागर का किनारा देखता है तो उसका मन-मयूर नाच उठता है। आँखें हर्ष से तर-बतर हो जाती हैं। शुद्धि, सिद्धि और मुक्ति इन तीनों भूमिकाओं में से सिद्धि के तट पर उसकी साधना-नौका आ पहुँचती है। जिस साधक को जिस भूमिका पर पहुँचना होता है, उससे पहले ही उसकी दशा उस भूमिका के योग्य हो जाती है। ऐसे साधक की दशा कैसी होती है ? इसे बताने के लिए पद्य के चार चरण साधक की समदर्शिता की अनुभूति का दिग्दर्शन कराते हैं। पूर्ण समदर्शिता का प्रथम चिह्न : शत्रु और मित्र पर समदर्शिता __ऐसे साधक के जीवन में शत्रु और मित्र, अनुकूल और प्रतिकूल, विरोधीअविरोधी के प्रति सहज स्वाभाविक रूप से समदर्शिता आ जाती है। ऐसी समदर्शिता तभी टिकी रह सकती है, जब शत्रु और मित्र, दोनों में उसे एक ही तत्त्व (स्वरूपदृष्टि से एकात्मभाव) नजर आता हो।' चिरायते (नीमगिलोय आदि के सत्व रस) के पानी को शक्कर का पानी मानकर पीना एक बात है और चिरायते के कटु रस में रहे हुए रसतत्त्व की जो लज्जत है, उसमें उसी प्रकार की वास्तविक रसवृत्ति को जानकर सच्चा रसोपभोग करना दूसरी बात है। कटु रस में भी रस की मिठास तो है ही। यदि कड़वी वस्तु में रस की मिठास न होती तो ऊँट को नीम प्रिय न लगता। किन्तु जीभ सदा से पड़ी हुई आदत के कारण उस मिठास को प्रायः अनुभव नहीं कर पाती। जैसे इन्द्रियों की उपर्युक्त आदत के कारण पदार्थ के स्वाभाविक रस की यथार्थता का अनुभव नहीं होता, वैसे ही वृत्ति में रही हुई कषायों की कालिमा के कारण जगत् में रही हुई शुक्लता दृष्टिगोचर नहीं होती, फलतः आत्मा विभावजन्य प्रवृत्ति में ही अटक जाती है, उसके आगे की पारदर्शी दृष्टि प्राप्त नहीं होती। किन्तु क्रोध का सर्वथा उन्मूलन होने पर वात्सल्य रस के १. तुलना करें समया सव्वभूएसु, सत्तु मित्तेसु वा जगे। -उत्तरा., अ. १९, गा. २५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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