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________________ क्षीणमोह गुणस्थान से अयोगी केवली गुणस्थान तक मोक्ष के निकटवर्ती सोपान दशम सोपान : उच्चकोटि की विशुद्ध एवं पूर्ण समता की प्रतीति के चार चिह्न संज्वलन के क्रोध, मान, माया और लोभ पर पूर्ण विजय प्राप्त कर ली है या नहीं? इसकी पूरी प्रतीति क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान में हो जाने के पश्चात् उस विजय का जीता-जागता परिणाम क्या और कैसा होता है ? अर्थात् उक्त साधक की शत्रु और मित्र (व्यक्तियों) पर, मान और अपमान आदि परिस्थितियों पर तथा जीवन या मरण तथा संसार और मोक्ष आदि अनुकूल-प्रतिकूल संयोगों पर उच्चकोटि के विशुद्ध समभाव अथवा शुद्ध आत्म-स्वभाव में निश्चल-अविचल स्थिति रहती है या नहीं? इसके लिए दसवाँ पद्य इस प्रकार है "शत्रु-मित्रप्रत्ये वर्ते समदर्शिता, मान-अमाने वर्ते ते ज स्वभाव (समभाव) जो। जीवित के मरणे नहि न्यूनाधिकता, भव-मोक्षे पण वर्ते शुद्ध स्वभाव जो॥१०॥" इसका भावार्थ यह है कि शत्रु और मित्र, ये दोनों विरोधात्मक शब्द स्मृति कोष में से निकल जायें, इसके लिए शत्रु और मित्र, दोनों के प्रति एक-सी अमृतदृष्टि रहे; मान (सम्मान) और अपमान में भी सहज रूप से ऐसी समता सदा टिकी रहे अर्थात् मन की तराजू पर इन दोनों का कुछ भी असर न हो, समतोल बना रहे। इसी प्रकार जीवन और मरण इन दोनों में से किसी भी दशा पर न्यूनाधिक भाव न आए, यानी इन दोनों दशाओं में भी यथार्थ समता टिकी रहे। और संसार तथा मोक्ष, इन दोनों दशाओं के प्रति भी शुद्ध स्वभाव रहे। अर्थात् संसारदशा में रहते हुए भी निर्लिप्तता से मोक्ष का आनन्द लूटने का अभ्यास हो। आशय यह है कि ऐसे समदर्शी साधक को न तो संसारदशा के प्रति व्यग्रता (व्याकुलता) पैदा हो और न मोक्ष का ही मोह पैदा हो।' १. (क) 'अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवसे का दसवाँ पद्य (ख) 'सिद्धि के सोपान' से भाव ग्रहण, पृ. ७३-७४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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