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________________ * ४ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * न सोचे, ऐसी समता की उत्कृष्ट दशा वस्तुतः अवर्णनीय है, अकल्प्य है ! फिर भी जिसके लिए सहज है, उसके लिए सहज ही है ! जबरदस्ती ऐसी दशा लाई नहीं जा सकती, लाई भी गई हो तो वह टिक नहीं सकती। बहु-उपसर्ग करने वाले के प्रति अक्रोध रखने वाला साधक भी अपने निजी शिष्य के ऐसे दुर्व्यवहार को. सम्पूर्ण सिद्धि प्राप्त न की हो तो सह नहीं सकता। श्रमण भगवान की आत्मा सिद्धि की भूमिका पार कर चुकी थी। इसलिए वे गोशालक की समस्त दुष्क्रियाओं के पीछे भी उसकी शुद्ध आत्मा को ही देख सके थे। गोशालक की वैररंजित वृत्ति ही उससे पूर्वबद्ध वैर वसूल करने के लिए यह सब करा रही थी। फलस्वरूप मृत्यु की घड़ियों में गोशालक का हृदय-परिवर्तन होकर ही रहा।' आर्षद्रष्टा कहते हैं-श्रमण भगवान महावीर के नाम से परिचित चोले में रहे हुए जीव ने पूर्व-भव में गोशालक के पूर्व-जन्म की आत्मा के साथ इस प्रकार का वैर बाँध लिया था। किन्तु उक्त पूर्वबद्ध वैर की वसूली करने हेतु गोशालक ने जब भगवान महावीर के प्रति अनिष्ट कदम उठाए, तब क्षीणमोही भगवान महावीर ने उसके प्रति निष्काम मैत्रीभाव (वात्सल्य) बहाकर पूर्व वैर का बदला चुकाया। इसलिए नया वैर बँधने का कोई कारण न रहा और पूर्वकृत वैर निर्मूल हो गया। स्निग्ध वस्तु के साथ ही कोई वस्तु चिपक सकती है, रूक्ष वस्तु के साथ नहीं। इस सिद्धान्त के अनुसार वीतरागता-प्राप्त महावीर के नया वैरानुबन्ध नहीं हुआ। इतना ही नहीं, भगवान महावीर की अनन्त उदारता और वत्सलता का चेप भी उसे लगा। अन्तिम समय में भगवान महावीर के प्रति उसके मन में श्रद्धा-भक्तिभाव उमड़ा। भगवतीसूत्र का कथन है-“अनेक जन्मों के बाद गोशालक की आत्मा भी. निश्चित रूप से मुक्ति (सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष) प्राप्त करेगी। यह है पूर्ण समदर्शिता का प्रथम चिह्न।"३ पूर्ण समदर्शिता-प्राप्ति का द्वितीय चिह्न : मान-अपमान में पूर्ण समता ___ पूर्ण समदर्शिता-प्राप्ति का दूसरा चिह्न है-मान और अपमान में एक सरीखा स्वभाव या समभाव रहना। इस पद्य में भी कहा गया है-“मान-अपमाने वर्ते ते ज स्वभाव जो।" जैसे क्रोध को निर्मूल करने के बाद शत्रुता का निवारण करना सुलभ है, वैसे ही अभिमान को नष्ट कर देने के बाद मान-अपमान को जीतना और दोनों अवस्थाओं में सम रहना सुलभ है। किन्तु पूर्वोक्त दशा की अपेक्षा यह दशा एक कदम आगे की है। सभी जीवों के प्रति मैत्रीभाव रखने वाले विश्ववत्सल साधक के लिए भी मानापमान की वैतरणी नदी पार करना कठिन हो जाता है। यहाँ जिस -सिद्धि के सोपान, पृ. ७७ १. नहीं अपराध एकाकी पात्र में जन्मता कभी। __जन्मे भी तो सखे ! सचमुच हो जाता नष्ट है तभी॥ . २. देखें-भगवतीसूत्र, श. १५ में गोशालक का इतिवृत्त ३. 'सिद्धि के सोपान' के आधार पर, पृ. ७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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