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________________ * १४६ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * दशविध प्राणवलों से भी आत्म-शक्तियों को कैसे जगाया जा सकता है, इसका विश्लेषण भी कर्मविज्ञान ने किया है। इसी प्रकार वालवीर्य (सकर्मवीर्य) और पण्डित (अकर्म) वीर्य की पहचान कर्मविज्ञान ने सूत्रकृतांग में उक्त अशुद्ध और शुद्ध पराक्रम द्वारा कराई है। स्थूलदृष्टि में कोई कितने ही भाग्यशाली, लोकदृष्टि में पूज्य, शूरवीर या वाणीवीर हों, किन्तु धर्म और मोक्ष के वास्तविक तत्त्वों से अनभिज्ञ हों, असम्यग्दृष्टि (मिथ्यादृष्टि) हों, उनका पराक्रम अशुद्ध है, क्योंकि उनका सब पराक्रमकर्मबन्धयुक्त होने से कर्मफलयुक्त होता है। इसके विपरीत जो महाभाग्यशाली, महापूज्य परमार्थ के यथार्थ तत्त्वज्ञ हैं, कर्मविचारण करने में वीर (सहिष्णु, तितिक्षु) हैं, सम्यग्दृष्टि हैं, उनका तप, त्याग, व्रत, नियम, संयम, स्वाध्याय, ध्यानादि में किया गया पराक्रम शुद्ध है, कर्मफलरहित है; क्योंकि वह कर्मबन्धकारक नहीं है। शुद्ध आत्म-शक्ति = परमात्म-शक्ति को अभिव्यक्त करने की सरल प्रक्रिया ____ असंख्यप्रदेशी आत्मा के प्रत्येक प्रदेश में अनन्त वीर्य-अविभाग होते हैं। किन्तु प्रत्येक आत्मा के वे सारे के सारे वीयांश खुले नहीं रहते। यानी प्रत्येक आत्मा की सारी शक्तियाँ विकसित, जाग्रत या प्रकट नहीं होतीं। एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय जीव तक में न्यनाधिक रूप में वीर्यांश खले रहते हैं। मनुष्यों में भी अनन्त वीर्यांश प्रकट होने में तारतम्य रहता है। वीर्यान्तराय कर्म का जितना-जितना क्षय, क्षयोपशम या उपशम होता है, उतना-उतना वीर्य (शक्ति या पराक्रम) प्रकट होता है। बाकी का कर्मों से आवृत रहता है। मन-वचन-काया की चंचलता जितनी अधिक, उतना ही प्रकम्पन अधिक। अधिक प्रकम्पन वीर्य की स्थिरतामें वाधक है। अतः त्रियोगों और इन्द्रियों का जितना निरोध होगा, उतनी ही वीर्य (शक्ति) में स्थिरता होगी। शरीरादि की प्रवृत्तियों को जितना अधिक रोका जायेगा, एक भी अनावश्यक, निरर्थक या सावध प्रवृत्ति त्रियोगों से नहीं की जायेगी तथा ध्यान, धारणा, समाधि आदि से एवं ज्ञाता-द्रष्ट्रा बनकर रहने से प्रवृत्तियों का जितना निरोध किया जायेगा, उतनी ही शीघ्रता से आत्म-शक्तियाँ जाग्रत एवं संवर्द्धित होती जायेंगी। वीर्यान्तराय कर्म का सर्वथा क्षय १३वें गुणस्थान में करके पूर्णतः उत्कृष्ट आत्म-वीर्य प्रकट कर सकता है तथा १४वें गुणस्थान में तो अनन्त वीर्य से परिपूर्ण अयोगी, अलेश्यी पूर्ण परमात्मा बन जाता है। यही आत्म-शक्तियों के प्रकटीकरण की सरल प्रक्रिया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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