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* कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * १४५ *
इन्द्रियग्राह्य नहीं है, न ही आत्मा इन्द्रियग्राह्य है। अतः शास्त्रकारों ने कहा-आत्म-शक्तियों की अभिव्यक्ति के लिए माध्यम शरीर, पाँचों इन्द्रियाँ, मन, वाणी, बुद्धि, चित्त तथा दशविध बलप्राण बनते हैं। इन दोनों की क्रमशः संज्ञा है-बाह्यकरण और अन्तःकरण। आत्म-शक्तियों की जागृति या अभिव्यक्ति तभी होती है, जब ये करणद्वय या दशविध प्राण आत्म-स्वभाव में या आत्म-गुणों में स्थिर होने-रमण करने में साक्षात् माध्यम बनकर (यानी अन्तर्मुखी बनकर) साधक एवं सहायक हों। ऐसी स्थिति में मोक्ष (कर्मक्षय) की ओर किये जाने वाले पराक्रम को पण्डितवीर्य कहा जाता है। इसके विपरीत यदि ये करणद्वय आत्म-शक्तियों के जागरण में सहायक या साधक न बनकर बाधक बनते हैं, विपरीत दिशा में हिंसा-असत्य-चोरी आदि में या क्रोध, अहंकार. लोभ आदि कषायों आदि पापस्थानों में पराक्रम करते हैं. तब आत्मा की निखालिस शक्ति के रूप में अभिव्यक्त न होकर विकृत एवं शुभाशुभ कर्मबन्धक शक्ति के रूप में अभिव्यक्त होते हैं, तब इन्हें बालवीर्य कहा जाता है। इन्हें ही दूसरे शब्दों में क्रमशः अकर्मवीर्य और सकर्मवीर्य कहा गया है। यह ध्यान रहे कि शरीरादि या मन-बुद्धि-चित्त आदि बाह्यकरण और अन्तःकरण में या दशविध प्राणों में जो भी शक्ति (बलवीर्य) है, जिन्हें पौद्गलिक वीर्य कहा जाता है। शरीरादि में स्थित वीर्य पौद्गलिक होते हुए भी मूल में आत्मा के भाववीर्य गुण से वह अभिव्यक्त प्रगट होता है। जिस प्राणी (आत्मा) के वीर्यान्तराय कर्म का जितना क्षयोपशम होता है, उतने बल वाला ही पूर्वोक्त पौद्गलिक वीर्य प्रकट हो सकता है, अधिक नहीं। आगे इसी सूत्रानुसार कर्मविज्ञान ने बालवीर्य और पण्डितवीर्य की पहचान के कुछ संकेत भी दिये हैं। बालवीर्य कर्मबन्धकारक सकर्मवीर्य होता है, जो मुख्यतया अष्टविध या पंचविध प्रमाद द्वारा होता है, जबकि पण्डितवीर्य कर्मक्षयकारक होता है, जिसे अकर्मवीर्य कहा है, वह अप्रमादवृत्ति से होता है। पण्डितवीर्य (अकर्मवीर्य) की साधना के लिए २९ प्रेरणासूत्र ____ कर्मविज्ञान ने सूत्रकृतांगसूत्रोक्त पण्डित (अकर्म) वीर्य की साधना के लिए २९ प्रेरणासूत्र भी अंकित किये हैं-(१) वह भव्य (मोक्षगमनयोग्य) हो, (२) अल्पकषायी हो, (३) कषायात्मक बन्धनों से उन्मुक्त हो, (४) पापकर्म के कारणभूत आस्रवों को हटाकर, कषायात्मक बन्धनों को काटकर शेष कर्मों को शल्यवत् काटने के लिए उद्यत हो, (५) मोक्ष की ओर ले जाने वाले सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय के लिए पुरुषार्थ करे, (६) स्वाध्याय, ध्यान आदि मोक्षसाधक अनुष्ठानों के लिए पुरुषार्थ करे, (७) धर्मध्यानारोहण के लिए बालवीर्य की दुःखदायकता, अशुभ कर्मबन्ध-कारणता तथा सुगतियों में उच्च स्थानों एवं परिजनों के साथ संवास की अनित्यता की अनुप्रेक्षा करे, (८) इस प्रकार के चिन्तनपूर्वक इन सब के प्रति अपनी आसक्ति और ममत्व-बुद्धि हटा दे, (९) इस सर्वमान्य आर्य मार्ग (रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग) को स्वीकार करे, (१०) पवित्र बुद्धि से धर्म के सार को जान-सुनकर आत्मा के ज्ञानादि गुणों के उपार्जन में उद्यम करे, (११) पापयुक्त अनुष्ठान का त्याग करे, (१२) अपनी आयु का उपक्रम (अन्तकाल) किसी प्रकार जान जाए तो यथाशीघ्र संलेखनारूप या पण्डितमरणरूप अनशन (संथारे) का अभ्यास करे, (१३) कछुए द्वारा अंग-संकोच की तरह पण्डितसाधक पापरूप कार्यों को सम्यक् धर्मध्यानादि की भावना से संकुचित कर ले, (१४) अनशनकाल में मानसिक, वाचिक, कायिक समस्त प्रवृत्तियों को, अपने हाथ-पैरों को तथा अकुशल संकल्पों से मन को रोक लें एवं अनुकूल-प्रतिकूल विषयों में राग-द्वेष का त्याग करके इन्द्रियों को संकुचित कर ले, (१५-१६) पापरूप परिणाम वाली दुष्कामनाओं का तथा भाषादोष का त्याग करे, (१७) अभिमान (अहंकार या मद) और माया लेशमात्र भी न करे, (१८) इनके (शल्यों के) अनिष्ट फलों को जानकर सुख-प्राप्ति के गौरव में उद्यम न हो, (१९) उपशान्त, निःस्पृह और मायारहित (सरल) होकर विचरण करे, (२०) प्राणिहिंसा से दूर रहे, (२१) अदत्तग्रहण (चौर्यकर्म) न करे, (२२) मायायुक्त असत्य न बोले, (२३) प्राणियों के प्राणों का उत्पीड़न केवल काया से ही नहीं, मन और वचन से भी न करे, (२४) बाहर
और भीतर से संवृत (गुप्त) होकर रहे, (२५) इन्द्रिय-दमन करे, (२६) मोक्षदायक संयम (सम्यग्दर्शनादिरूप) की आराधना करे, (२७) जितेन्द्रिय रहे, (२८) पाप से आत्मा को बचाए, और (२९) किसी के द्वारा अतीत में किये गये, वर्तमान में किये जाते हुए और भविष्य में किये जाने वाले पाप का मन, वचन, काया से भी अनुमोदन न करे। सचमुच, आत्म-शक्तियों की अभिव्यक्ति के लिए उद्यत साधक के लिए ये प्रेरणासूत्र जीवन में क्रियान्वित करने योग्य हैं।
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