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* १४४ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु *
आत्म-शक्तियों का सदुपयोग न कर पाने के सात कारण
निम्नोक्त सात कारणों से कई लोग अपनी आत्म-शक्तियों का सदुपयोग नहीं कर पाते-(१) आत्मा में शक्ति तो पड़ी ही है, फिर उसका उपयोग या उसके विकास की साधना क्यों की जाए? इस भयंकर भ्रान्ति के कारण; (२) कुछ लोग कष्टों, कठिनाइयों, उपसर्गों, विघ्न-बाधाओं, परीषहों आदि से घबराकर या कतराकर; (३) या तामसिक प्रकृति के कारण आत्म-शक्तियों को प्रगट करने में आलस्य, टालमूटल, अनेकाग्र-व्यग्र आदि के वश पुरुषार्थ ही न करके, (४) कई लोग शक्तियों में अवरोध उत्पन्न करने वाले परभावों के प्रति आसक्ति तथा कषायादि, रागादि विभावों के प्रवाहों में बहकर या समय, अशक्ति या दुष्परिस्थिति का बहाना बनाकर, (५) कई लोग अपने जीवन में तीव्र हिंसादि पापाचरणों में विदुर्व्यसनों में रत रहने के कारण सोचते हैं कि उन विकृत, दुष्कर्मबन्धकृत शक्तियों को आध्यात्मिक दिशा में कैसे लगा . सकते हैं, इस हीनभावना के शिकार होकर, (६) अपने जीवन में अपमान, उद्विग्नता, तनाव, आघात, तीव्र भय आदि से दंश से प्रेरित होकर आत्महत्या द्वारा अपनी शक्ति को नष्ट करके, (७) कई धर्म-सम्प्रदाय के लोग इस भ्रान्त मान्यता के कारण कि कितना ही पापकर्म करें, कुछ भी करें, कयामत के दिन खुदाताला से माफी माँग लेंगे, अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करते हैं, सदुपयोग नहीं कर पाते।
___ कर्मविज्ञान ने आत्म-शक्तियों का सदुपयोग न करने या न कर सकने वाले अथवा शक्तियों का अनुपयोग या दुरुपयोग करने वालों को विविध युक्तियों तथा अर्जुन मुनि, हरिकेशबल मुनि, प्रभवस्वामी, स्थूलभद्र मुनि आदि का उदाहरण देकर आत्म-शक्तियों को हर हालत में प्रगट कर सकने और परमात्म-शक्ति प्राप्त करने का पुरुषार्थवाद का सन्देश दिया है। आत्म-शक्तियों के जागरण के लिए पाँच सूत्र
आत्म-शक्तियों को जाग्रत करने हेतु यदि निम्नोक्त सूत्रों पर ध्यान दिया जाए तो पापी से पापी व्यक्ति, हीनजातीय, तिरस्कृत, अपमानित, दुर्व्यसनयुक्त व्यक्ति भी अपनी आत्म-शक्तियों का नियोजन मोक्ष-प्राप्ति या परमात्मपद-प्राप्ति की दिशा में कर सकता है-(१) आत्म-शक्ति का महत्त्व, मूल्य, स्वरूप, उपयोग और उपयोग-विधि की भलीभाँति जानकारी, (२) सम्यग्दृष्टि, सम्यक्श्रद्धा, रुचि-प्रतीति एवं देव-गुरु-धर्म पर पूर्ण श्रद्धा एवं आत्म-विश्वास के साथ आत्म-शक्तियों को जाग्रत करने की तमन्ना, (३) तदनन्तर उन शक्तियों को जाग्रत करने का पुरुषार्थ करना, विघ्न-बाधाओं, कष्टों एवं उपसर्गों से तनिक भी न घबराना, (४) तत्पश्चात् जाग्रत आत्म-शक्तियों को पचाना और सँभालना, (५) उपलब्ध आत्म-शक्तियों को मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय एवं अशुभ योग, अशुभ निमित्तों आदि से बचाना, कर्मानवों, बन्धों, परभावासक्ति, विभावों में रमणता आदि बाधक कारणों से उनकी रक्षा करना, दुर्व्यय न करना। आध्यात्मिक शक्ति के मुख्य दस प्रकार
भौतिक बलवीर्य (शक्ति) आध्यात्मिक बलवीर्य का अन्तर समझने के लिए सूत्रकृतांग नियुक्ति आध्यात्मिक शक्ति के मुख्य दस प्रकार बताए हैं-(१) धृति (संयम और चित्त में स्थैर्य), (२) उद्यम (ज्ञानोपार्जन, तपश्चरण आदि में आन्तरिक वीर्योल्लास या उत्साह), (३) धीरता (परीषहों और उपसर्गों के समय अविचलता), (४) शौण्डीर्य (त्याग की उच्चकोटि की उत्साहपूर्ण भावना), (५) क्षमाबल, (६) गाम्भीर्य (अद्भुत या साहसिक धर्मकार्य करके भी मद या गर्व न आना), (७) उपयोगबल (द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावानुसार स्व-विषयक पराक्रम का निश्चय करना), (८) योगबल (मन-वचन-काया से अध्यात्म-दिशा में प्रसन्नता से प्रवृत्त होना), (९) तपोबल (बाह्याभ्यन्तर द्वादशविध तप में खेदरहित उत्साहपूर्वक पराक्रम करना), और (१०) संयम में पराक्रम (सत्रह प्रकार के संयम के पालन में तथा अपने संयम को निर्दोष रखने में पराक्रम करना। सचमुच में दस सूत्र आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त करने में उपयोगी हैं। बालवीर्य और पण्डितवीर्य बनाम सकर्मवीर्य और अकर्मवीर्य
सूत्रकृतांगसूत्र में बालवीर्य और पण्डितवीर्य का उल्लेख है। आत्मिक शक्तियों की अभिव्यक्ति या जागृति इन दोनों में से पण्डितवीर्य के द्वारा ही हो सकती है। यद्यपि आत्मिक-शक्तियों की अभिव्यक्ति अव्यक्त होने से
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